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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

काफी अनुभव है। उन सबको हमारी बधाई है। वे अन्ततक जूझते रहें ऐसी उनसे हमारी विनय है। उनके समक्ष हम रामसुन्दरका चित्र रखते हैं। अच्छा है, वे जेल जायें, उन्हें 'देशनिकाला' दिया जाये और इन पंक्तियोंके छपने तक वे कारावासमें विराजमान भी हो चुकें।

पीछे रह जानेवाले क्या करते हैं, इसके सन्तोषप्रद उत्तरपर सब समाया हुआ है। जनरल स्मट्सने जो यह कदम उठाया है, इसके लिए उन्हें धन्यवाद देना चाहिए। अब हमारी सच्ची कसौटी होनेवाली है। अगर लोगोंको अपनी शपथ और प्रतिष्ठा प्यारी है तो एक भी भारतीय खूनी कानून नहीं मानेगा; यदि माना तो इसके बराबर दूसरा दुःख नहीं है। इसलिए दूसरा चाहे जो दुःख सहन करना पड़े, किन्तु खूनी कानून हमसे "बर्दाश्त न होगा"।

[ गुजरातीसे ]

इंडियन ओपिनियन, ४-१-१९०८

४. पत्र: राजस्व-आदाताको

[जोहानिसबर्ग

जनवरी ४, १९०८]

[श्री एफ० सी० बिगर

राजस्व-आदाता (रिसीवर ऑफ़ रेवेन्यूज़)

जोहानिसबर्ग]

महोदय,

मेरे संघने 'गज़ट' में इस आशयका नोटिस देखा है कि यदि ब्रिटिश भारतीय १९०७ के एशियाई पंजीयन कानून संशोधन अधिनियम २ के अन्तर्गत पंजीयन-प्रमाणपत्र प्रस्तुत न कर सकेंगे और कुछ अन्य विधि-विधानोंको पूरा न करेंगे तो उनको व्यापारिक परवाने नहीं दिये जायेंगे।

मेरे संघको यह भी मालूम हुआ है कि कई ब्रिटिश भारतीयोंने परवानोंके लिए प्रार्थना-पत्र दिये हैं और विधिवत् परवाना शुल्क भी दे दिया है; किन्तु उनको उक्त नोटिसके कारण परवाने नहीं दिये गये हैं।

१. देखिए पिछला शीर्षक।

२. अनुमानत: इसका मसविदा गांधीजीने तैयार किया था।

३. इस पत्रकी तारीखका उल्लेख राजस्व-आदाताने अपने उत्तरमें किया था। उसने लिखा था: "मैं उत्तरमें आपको यह बताना चाहता हूँ कि वे भारतीय व्यापारी, जो बताये गये तरीकेसे कानूनको तोड़ना चाहते हैं, १९०५ के राजस्व-परवाना अध्यादेशकी धाराओंके अन्तर्गत दण्डनीय होंगे। इसके अनुसार जो लोग परवानेके बिना कोई व्यापार या व्यवसाय करते हैं उनपर भारी जुर्माने किये जाते हैं, फिर वे किसी दूसरे कानूनके विधानोंको भंग करते हों या न करते हों।

"१९०८ के परवानोंको नया करनेके सम्बन्धमें पत्रोंमें प्रकाशित नोटिस कानूनी किस्मका नहीं है, बल्कि वह केवल ऐसी सूचना है जो व्यापारी-वर्गकी जानकारी और रहनुमाई के लिए पत्रों में परामर्श के रूपमें दी गई है। इस सम्बन्धित प्रश्नपर उसको प्रकाशित करनेका या इसको वापस लेनेका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

"मुझे यह दुहरानेकी आवश्यकता नहीं है, और यह बात भली-भाँति समझ ली गई है, कि मैंने एशियाई व्यापारियोंको पंजीयन-प्रमाण पत्र प्रस्तुत किये बिना परवाने न देनेकी कार्रवाई एशियाई कानून संशोधन अधिनियम, १९०७ की धारा १३ के अन्तगत की है।