पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/१२५

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आचरण की सभ्यता कल्याणकारक हैं । सच्चा साधु धर्म को गौरक देता है, धर्म किसी को गौरवान्वित नहीं करता । n आचरण का विकास जीवन का परमोद्देश है। प्राचरण के विकास के लिये नाना प्रकार की सामाग्रियों का, जो संसार-संभूत शारीरिक, प्राकृतिक, मानसिक और आध्यात्मिक जीवन में वर्तमान है, उन सबकी [सबका]--क्या एक पुरुष और क्या एक जाति के प्राचरण के विकास के साधनों के सम्बन्ध में विचार करना होगा। अाचरण के विकास के लिये जितने कर्म हैं उन सबको अाचरण के संघटन कर्ता धर्म के अङ्ग मानना पड़ेगा। चाहे कोई कितना ही बड़ा महात्मा क्यों न हो, वह निश्चयपूर्वक यह नहीं कह सकता कि यों ही करो, और किसी तरह नहीं । आचरण की सभ्यता की प्राप्ति के लिये वह सबको एक पथ नहीं बता सकता । अाचरण-शील महात्मा स्वयं भी किसी अन्य की बनाई हुई सड़क से नहीं आया; उसने अपनी सड़क स्वयं ही बनाई थी। इसी से उसके बनाये हुए रास्ते पर चलकर हम भी अपने आचरण को आदर्श के ढाँचे में नहीं ढाल सकते । हमें अपना रास्ता अपने ही जीवन की कुदाली की एक एक चोट से रात-दिन बनाना पड़ेगा और उसी पर चलना भी पड़ेगा। हर किसी को अपने देश- कालानुसार रामप्राप्ति के लिये अपनी नैया आप ही बनानी पड़ेगी और आप ही चलानी भी पड़ेगी। यदि मुझे ईश्वर का ज्ञान नहीं तो ऐसे ज्ञान ही से क्या प्रयोजन ? जब तक मैं अपना हथौड़ा ठीक ठीक चलाता हूँ और रूपहीन लोहे को तलवार के रूप में गढ़ देता हूँ तब तक यदि मुझे ईश्वर का ज्ञान नहीं तो नही होने दो। उस ज्ञान से मुझे प्रयोजन ही क्या ? जब तक मैं अपना उद्धार ठोक और शुद्ध रीति से किये जाता हूँ तब तक यदि मुझे श्राध्यात्मिक पवित्रता का भान नहीं होता तो न होने दो । उससे १२५