पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/१२८

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अाचरण की सभ्यता बेड़ों आदि को देखकर कहना पड़ता है कि इनसे वर्तमान सभ्यता से भी कहीं अधिक उच्च सभ्यता का जन्म होगा। यदि योरप के समुद्रों में जंगी जहाज मक्खियों की तरह न फैल जाते और योरप का घर घर सोने और हीरे से न भर जाता तो वहाँ पदार्थ-विद्या के सच्चे प्राचार्य और ऋषि कभी न उत्पन्न होते । पश्चिमीय ज्ञान से मनुष्य मात्र को लाभ हुअा है । ज्ञान का वह सेहरा- बाहरी सभ्यता की अन्तर्वर्तिनी आध्यात्मिक सभ्यता का वह मुकुट- जो आज मनुष्य जाति ने पहन रखा है योरप को कदापि न प्राप्त होता, यदि धन और तेज को एकत्र करने के लिए योरपनिवासी इतने कमीने न बनते । यदि सारे पूर्वी जगत् ने इस महत्ता के लिए अपनी शक्ति से अधिक भी चंदा देकर सहायता की तो बिगड़ क्या गया ? एक तरफ जहाँ योरप के जीवन का एक अंश असभ्य प्रतीत होता है-कमीना और कायरता से भरा मालूम होता है वहीं दूसरी ओर योरप के जीवन का वह भाग, जिसमें विद्या और ज्ञान के ऋषियों का सूर्य चमक रहा है, इतना महान् है कि थोड़े ही समय में पहले अंश को मनुष्य अवश्य ही भूल जायँगे | धर्म और आध्यात्मिक विद्या के पौधे को ऐसी अारोग्य-वर्धक भूमि देने के लिये, जिससे वह प्रकाश और वायु में सदा खिलता रहे, सदा फूलता रहे, सदा फलता रहे, यह आवश्यक है कि बहुत से हाथ एक अनंत प्रकृति के ढेर को एकत्र करते रहें। धर्म की रक्षा के लिये क्षत्रियों को सदा ही कमर बॉधे हुए सिपाही बने रहने का भी तो यही अर्थ है । यदि कुल समुद्र का जल उड़ा दो तो रेडियम धातु का एक कण कहीं हाथ लगेगा। आचरण का रेडियम-क्या एक पुरुष का, और क्या जाति का, और क्या एक जगत् का-सारी प्रकृति को खाद बनाये बिना-सारी प्रकृति को हवा में उड़ाये बिना भला कब मिलने का है ? प्रकृति को मिथ्या करके नहीं १२८