पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/६८

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कन्यादान स्वयं अनुभव आज हम उस अश्रु-धारा का स्मरण नहीं करते जो ब्रह्मानन्द के कारण योगी जनों के नयनों से बहती है। आज तो लेखक के लिये अपने जैसे साधारण पुरुषों की अश्रु-धारा का स्मरण करना ही इस लेख का मंगलाचरण है । प्रेम को बूंदों में यह असार संसार मिथ्या रूप होकर घुल जाता है और हम पृथ्वी से उठकर अात्मा के पवित्र नभो-मंडल में उड़ने लगते हैं । अनुभव करते हुए भी ऐसी घुली हुई अवस्था में हर कोई समाधिस्थ हो जाता है; अपने आपको भूल जाता है; शरीराध्यास न जाने कहाँ चला जाता है; प्रेम की काली घटा ब्रह्म- रूप में लीन हो जाती है । चाहे जिस शिल्पकार, चाहे जिस कला- कुशल-जन, के जोवन को देखिए उसे इह परमावस्था का हुए बिना अपनी कला का तत्त्व ज्ञान नहीं होता । चित्रकार सुंदरता को अनुभव करता है और तत्काल ही मारे खुशी के नयनों में जल भर लाता है । बुद्धि, प्राण, मन और तन सुंदरता में डूब जाते हैं । सारा शरीर प्रेम-वर्षा के प्रवाह में बहने लगता है । वह चित्र हो क्या जिसको देख देखकर चित्रकार की आँखें इस मदहोश करनेवाली ओस से तर न हुई हो । वह चित्रकारी हो क्या जिसने हजार बार चित्रकार को इस योग-निद्रा में न सुलाया हो । कवि को देखिए, अपनी कविता के रस-पान से मत्त होकर वह अन्तःकरण के भी परे आध्यात्मिक नभो-मंडल के बादलों में विचरण करता है । ये बादल चाहे अात्मिक जीवन के केंद्र हों, चाहे निर्विकल्प समाधि के मंदिर के बाहर के घेरे, इनमें जाकर कवि जरूर सोता है। उसका अस्थि-मांस का शरीर इन बादलों में घुल जाता है। कवि वहाँ ब्रह्म-रस को पान करता है और अचानक बैठे बिठाये श्रावण- भादों के मेघ की तरह संसार पर कविता की वर्षा करता है। हमारी आँखें कुछ ऐसी ही हैं। प्रकार वे इस संसार के कत्ता को नहीं देख सकतीं उसी प्रकार आध्यात्मिक देश के बादल और धुन्ध में सोये