पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कन्यादान अश्रुनों को वे अद्भुत दिव्य प्रम के अश्रु मानते हैं । सच है, संसार के गृहस्थ मात्र के संबंधों में पिता और पुत्री का संबंध दिव्यप्र म से भरा है। पिता का हृदय अपनी पुत्री के लिए कुछ ईश्वरीय हृदय से कम नहीं। पाठक, अब तक न तो आपको और न मुझे ही ऊपर की लिखी हुई बातों का ऊपरी दृष्टि से कन्यादान के विषय से कुछ संबन्ध मालूम होता है। तो फिर लेखक ने सरस्वती के सम्पादक को नीली पेंसल फेरने का अधिकार क्यों न दिया। उसका कारण केवल यह है कि ऊपर और नीचे का लेख लेखक की एक विशेष देश-काल-सम्बन्धी मनो- लहरी है । पता लगे, चाहे न लगे कन्यादान से सम्बन्ध अवश्यमेव है । एक समय आता है जब पुत्री को अपने माता-पिता का घर छोड़- कर अपने पति के घर जाना पड़ता है। त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् । उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीयमामुतेः। शु० यजु० 66 "अायो, आज हम सब मिलकर अपने पतिवेदन उस त्रिकाल- दर्शी सुगंधित पुरुष का यज्ञ करें जिससे, जैसे दाना पकने पर अपने छिलके से अलग हो जाता है, वैसे ही हम इस घर के बंधनों से छूटकर अपने पति के अटलराज को प्राप्त हों।" प्राचीन वैदिक काल में युवती कुवारी लड़कियाँ यज्ञाग्नि की परिक्रमा करती हुई ऊपर को प्रार्थना ईश्वर के सिंहासन तक पहुँचाया करती थीं। हर एक देश में यह बिछोड़ा भिन्न भिन्न प्रकार से होता है । परंतु इस बिछोड़े में त्याग-अंश नजर आता है। योरप में ग्रादि काल से ऐसा रवाज चला आया है कि एक युवा कन्या किसी वीर, शुद्ध हृदय ७१