पृष्ठ:सरस्वती १६.djvu/२०७

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[भाग१७
सरस्वती


से स्थान की गवना हो सकती है तो मम यह माम हाना असम्मष है। हम स्पो स्या समझने होता है कि प्राफारा सीमा-साहित है या सीमा- चेपा करते हैं स्यों स्यों रहस्य गहतर होता जाता' रहित । इसका यही उत्तर होगा कि प्रकाश सीमा- है। इस लिए. यही मानना पड़ता है कि गति या दिस है । यदि पाकाश सीमारहित है तो स्थान का चाट का मान सम्भव नहीं। खयाल हो ही नहीं सकता। अब सीमायें ही महाँ है तष समी जगह एक सी दूरी पर होगी। प्रसपष । शक्ति (Fort)... कावार होकर हम यही कहना पड़ता है कि गति अब किसी फुसों को हम ऊपर उठाते हैन या घाल है सो प्रयश्य, परन्तु उसका समझमा जितना भार कुसी का है उसी के परावर दमें माना । हमारी बुद्धि के बाहर फी पात है। पल काम में लाना पड़ता है। दो तुल्य पदार्थो ही में ' ___ गति के बदलने का विषय भी पड़ा टेढ़ा है। बराबरी हो सकती है, परन्तु यहा कात इसके लिए ' कल्पना कीजिए कि एफ गेंद ठहरी हुई है। दूसरी रीत है। क्योंकि यह तो हमारे भीतर पार सौ । गेंद जो उसकी तरफ़ फेंकी गई तो पदसी गेंद का भार पाहर कुसों में है। साल हमारे भीतर।। चम्लने लगी। प्रध्या तो पहली गेंद चलमे फ्यों अर्थात् मन में है, वह मन का विकार है-यह हो । लगी।पात क्या है गई कि पहले वह सहरी वेतन का भाप है। कुर्सी तो है। उममें ऐसी . थी पीर प्रथ चलने लगी ? उत्तर में पाप यह कहेंगे शक्ति का होमा, ओ बेसन के माय के मुख्य है, को। कि चाल या गति में परियतम हो गया। पर यह माश्चर्य की बात है। इससे यह सात दुमा कि शाह वचर ठीक नहीं। पताइए यह यस्तु है क्या मिसफर को चैतन्य युक मामना मूर्मता है। परन्तु बात ऐसी परिवर्तन हो गया। गेंद तो जैसी थी ऐसी पप भी नहीं, क्योंकि हमारे भीतर भी शनि है यह मनच है। उसमें सो परियतम दुपा नहीं। गेंद के सो विकार है, पार मन घेतम है। इस लिए पाद भी पिशेपण ये उनमें भी कर प्रस्तर न पाया। चेतनही है। मिर्प यह निकला कि यह पस्तु मा परियतित शचि पार प्रकृति में परसर या साप, होती है मालूम नहीं हो सकती। गति के यिभाम इसका निर्वय करना चाहिए जिसे प्रति कहते। के विषय में एक पुरानी बात पप सक समी आती यह केवल शक्ति के पार ही दिखाई देती । है। यह यह कि सा घीस चल रही है यह सब प्रकृति ( Matter ) से यदि मतिरोपता (iroin तक फमी नहीं ठहर सफती जब तक कि जिसनी tune) निकास राली जाय तो कयल पिस्तार (Ix. तरह की पालें हो सकती ६सम शाम्त म हो ग{{ई tension ) रह जायगा । पर विमा प्रकृति के विस्तार है। पहले के पास थी, फिर धीमी हुई। इस समझ ही में महीं पासकता ! पति यह कहा जाय तरापरापर घरती पाली की मन में फरपना प्रिएति शक्ति के उम अणुमी में में जिनमें विस्तार , परसे जागो रुप भी ऐसी घाल तक हम महाँ महीं, तो यह भात पल्पना के बाहर है। यह बात पहुँच सकते जिससे कम पार कोई घास हीन भी समझ में नहीं पा सकता कि पितार या हाशून्य पाठ की अपेक्षा सूक्ष्म से परम भी पाठ प्रपया पिना घिसार पाल, शास. मा. मिना बड़ी है। माहे माकाश को मत्य करके विचार वि.सी प्रकार की प्रानिक महायता के अपस में किया जाय, चाहे प्रकृति को मत्य करके, पार पाहे प्राण पार प्रत्यार्पण कर सकते है। ... गति के पियाम के सस्य करके, परतु गति का म्यूटन पार पौराविक विचारस विषय