पृष्ठ:सरस्वती १६.djvu/२८८

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स्या ३] योगियर प्रोस्थामी चम्पामाथजी । १६५ - - . . mirrrrrrr ...mm-mmer प्रमते मामले मेपास राम्य में चौपरा मा निकले। में सर्वसाधारण को सदावर्त मिलता है। अतएय चम्पानाथ को वहीं उन्होंने अपना शिप्य धनाया । वैदेशिक साधु-महात्मा सर्वदा इस मन्दिर में पाया चम्पानाप वाल्यकाल से ही बड़े चम्चल थे। फरते हैं। मापकी बुरि भी पड़ी तीन पी। पाप जो कुछ चम्पानाथ पूर्वोक्त मन्दिर में ही ठहरे। कई पड़ते, मट याद हो जाता। पापके ममाहर मुस्न, दिन बाद भापकी पहम पार पहनाई उन्हें अपने सरलायत लोचन तथा सुन्दर बाल पर समी मुग्घ पर ले गये । बम्पामाय कुछ दिन पहन के घर रहे होतं थे। अब आपके गुरुदेव भारतवर्ष मामे लगे तव सही, किन्तु पहनाई के विचरे मिजाज के कारण सम्होंने पापको साथ लाने का विचार किया। किन्तु पाप यहाँ प्रषिक दिम न रह सके। माता-पिता की प्रधिक ममता के.कारण चम्पानाथ चम्पामाय में यहाँ सुना कि समीप के गहन गुरूसी के साथ मारत पाने से पञ्चित रहे। साल में भैरषमाय नामक घनसप्पी पाया रहते काल का चक्र भी पड़ा प्रबल है। बड़े बड़े और भारतक्रिया की साधना करते है। इस क्रिया प्रतधारी धुरन्धरी को भी उसने बलात् पसुग्घरा की के उपकरण में मध, मांस, मछली तो फ्या, यदि कन्दरा में छीन कर दिया है। चम्पानाथ के गुरुदेष हाथ लग जाय तो प्राप'मनुप्य-मांस को भी घट्ट नेपाल की सीमा से पाटन तक मी न पहुँचे होंगे कर जाते है। प्रतएष भापके पास पक्षी तक नहीं कि स्यारीकोट में चम्पानाय के पिता का स्वर्गवास फटकता । परन्तु यह जनप्रति सस्य म थी। न तो हो गया। पैभम्प-वेदना से कातर प्रापकी माता, घममण्डी पाबा अघोर-क्रिया के उपासक ही थे,, जयन्ती कन्या का विषाह जैसे तैसे करके, पतिलेोक मच-मास के भक्षक ही। पाप परम पैप्प पार को सिधार गई। माता के स्वर्गपास के अनम्तर सिर योगी थे। हठयोग की सम्पूर्ण क्रियायें प्रापको प्लासनाथ पार पम्पानाप- किसी तरह अपने दिम करामलकषत् थीं। काशी, काश्मीर प्रादि तीर्य- काटने लगे। देखते देखते बड़े भाई लालमाय ने स्थानों में प्राप भ्रमण भी कर चुके थे। पाप सर्पदा मी सहसा परलोक के लिए कूच कर दिया। सपस्थी देश में मान रहते तथा कमी कमी श्मशाम- चम्पानाय को अन्मभूमि भयानक भास्ट्म होने लगी। भूमि में मी तप किया करते थे। सम्मष है, पापके इस कारम उन्होंने अपनी बहन के घर पिऊठान सी कार्य पार पेश को देख कर लोगों ने प्रापकी माने की ठानी। प्रधारी की उपाधि दे दी हो। चौघरा पौर म्यारीकोट से पिऊठान ३।४ दिम चम्पानाथ मे सोचा कि चलो घममण्डी पाषा का रास्सा है। पिझठान एक छोटी सी छायनी है। की शरण लें । यदि ये मुझे प्रचार-क्रिया की साधना पापके षहमाई यहीं मौकर थे। पिऊठान के चारों में सा भी मायगे तो में संसार के नाना शो से तरफ़ पड़े ऊँचे ऊँचे पहाइहै। उसके पूर्वपर्वा मुक तो हो जाऊँगा। मतपय चम्पानाथ पिऊठान गिरिराज-शिखर पर महाराज मेपाळ का एक किला से परामुख होकर धममण्डी बाबा की तलाश में है। किले के भीतर पन्दक, बोखरी मादि शल पम पन भ्रमण करने लगे। एक दिन प्यमानाय को षमाने का कारस्पाना है। पिऊठान के ठीक मन्य- पावामी के दर्शन हो गये । यद्यपि घनमण्डी पापा माग में भगवती श्रीमद्रकाली का एक मन्दिर है। का रूप बड़ा ही मयामक था, तथापि चमानाप ने , मन्दिर के अधिपति महम्त भी योगी ही हैं। मन्दिर उन्हें साभात् गुरु गोरसनाथ समझा।