पृष्ठ:सरस्वती १६.djvu/३२१

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सरस्थती। . [माग प्राइम अची तरह समझ सफते हैं कि हिन्दी करना पड़ता है, सब उसे बाहर निकाममा पyanti के ये दोनों प्रत्यय "मैं" पार "पार" प्रादि में स्थतन्त्र मुल के भीतर सिद्धामल, जिया, कम्म. सानु दे शय थे। समय के प्रयाह में पढ़ कर घिगते भिन्न भिन्न स्थान है, मनके गारा दम, मन्द बिगड़ते उनका ऐसा रूप हो गया है। प्राप किसी प्रकार की स्वनियां कर सकते है।मुस र मगर मापा के भी मुबन्त पार निरात प्रत्ययों को ध्यान- इन प्रपयों के द्वारा हमें घासन रोगमा पा पूर्वक ये तो पापको पता लगेगा कि ये सभी इसी है। इसमें इम प्रयत करने फी पायपयस्ता है। सरह उत्पन्न दुप। यदिक काल के प्रार्याने "मैं अब हम धाम को गोलाकार पोष्ट डायपर . प्रम (प्रर्यात् वर्तमान काल में फरता" हैनम निकालते हैं सप "3" का उपारण होता है or भाप को प्रकट करने के लिए "E" करना, "नु" मम हम मीचे के प्रोष्ठ को पाड़ा हटाकर काम, प्रय. "मि" में, इन सीन शप्मों का पफ साप प्रयोग याहर फेंकते तब "मो" का रणरम नाई। किया था । यही "नुमि" (में करता है) पाद की जम हम दोनों प्रोटोका पिमफुल पम्प कराया "नाम" के रूप में बदल गया। इसी तरह + घास को निकालते हैं तब "प" का उधारमा मा+ति ( यह ) अर्थात् "पद परता" पार + है। अव पोट पद करने के बाद अराजार म णा+पि तुम) प्रर्थात "तुम करते "यमा । इस पयास फेफरी है सय "फ" का उधारण दोना प्रकार मे हम बहुत से प्रत्यपी र शयों के प्रादि पार जम कुट पास नाक के द्वारा पार पुण्य रुप का पता लगा सकते हैं। किन्तु अब उनका मुश के गप फेफने सब "म" का उपयरम इतना अपभ्रंश हो गया है कि समी के पिपय में स्यादि। इसमे उदाहरणों से पतासग जापान पोज करना प्रसम्मय सा गया है। यपि हम धारण करने में भी सूक्ष्म-दर्शिता पार परिम तिरस्कारपूर्वक पेमे पादों को "अपन" या प्रायश्यकता पाती । संयुक्त प्रक्षा का प्रचार विगः दुप शद कहते है, तथापि पालय में देखा परने में साइममी पार भी प्रायश्यपाता है। जाय तो किसी भाग की स्थाधीमता पर विकाश फेयल परिणम फै लिप.म्पर्य परिश्रम करना मनुष्य पपया परि ऐसे ही अरमएशदों से होती है। प्रकृति के पिरन्त है। मनुप्प हमेशा परिभम में भाग ___ अप हमें यहां पर उम कारमण पर विचार करमा है।पद केयल उतना ही परिश्रम करमा याता है जिनसे भाषा में परियम दाता रदता मापा सिसमें उस काम निकल जाय । पारप उभार परिवर्तन का मूल पारम्प मानुपी प्रतिभापा करम में भी यही नियम एम पाने हैं। यह मनु" मनुष्य के जीपम का स्पर्य अंश मही है। मानिकि पह उरण करने में हमारी प्रम पल गुसरी के सामने विचारों के प्रकट करने पर जिससे उमर विचार या माप दमो मन अग्यिा मात्र है मनुष्य मंशा उस मापा की सरसी परग "मुग" का " मुंगेर अपेक्षा, जिममें विचार प्रकट किये जाते ६, विचार प्रर्थात् "" उदारम करम में जितनी संविषय को अधिकमहायपूर्ण समझताशीका फेरने की प्रापरता धी नीता""re उप्यार करने में मनुष्य का चिरा करनी रण में पोकरी गई किन्तु ""कारमा पड़ती है। मुष के मातरभ्यास मारिषा के बाप में जिता की आता में मिसाना परताप दमें भ्यास ग्रेप करना पाना ६, भिन्न भिन्न स्थानो उममें जा पा करना पड़ना या पा"t पर कमी मास को रोकमा पाता, कभी कम रम में क्या गया।मी तर "म" "nd