लोक बुद्धि की जीवट यात्रा
इस सृष्टि की रचना जल से हुई है और मनुष्य ही नहीं; समूची सृष्टि को निर्मित करने वाले क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर नामक पंचभूतों में एक जल भी है। मानव जाति का इतिहास भी जल से जुड़ा हुआ है। आदमी की आदि प्रजाति अमीबा की उत्पत्ति जल के बिना संभव ही नहीं थी। अधिकांश सभ्यताओं का विकास भी नदियों के किनारे हुआ है। आज भी महत्वपूर्ण नगर किसी न किसी नदी के किनारे ही अवस्थित हैं। गांवों के भी आस-पास छोटी-बड़ी नदी बहती रही है और पहले तालाबों और बग़ीचों से तो गांव घिरा ही रहता था। तब खेती के लिए किसानों को किसी कीटनाशक या रासायनिक खाद का उपयोग करने की कोई ज़रूरत नहीं होती थी। पेड़-पत्तों और घर के कूड़े से बनी जैविक खाद ही ज़मीन की उर्वरता को लगातार बढ़ाती जाती थी। तब कल-कारखानों के कचरों ने ज़मीन और आकाश को प्रदूषित नहीं किया था, औद्योगिक विकास के नाम पर जंगल की अंधाधुंध कटाई नहीं हुई थी। हरियाली ज़मीन पर बिछी रहती थी, नदी और तालाब जीवन के गीत गाते थे और पेड़-पौधे संगीत सुनाते थे। दरअसल जल, ज़मीन और जंगल प्रकृति के चेहरे नहीं, प्रकृति की आत्मा के अवयव हैं और इनसे मनुष्य का आत्मिक संबंध सदियों से रहा है। आज की आधुनिकता ने इसी संबंध पर हमला किया है। आधुनिक विकास के असंतुलित ढांचे ने मनुष्य और प्रकृति के पारस्परिक संबंध को जिस तरह से एकतरफ़ा और भोगवादी बना दिया है, सिर्फ़ मनुष्य का नहीं समूचे प्राणियों और वनस्पतियों का जीवन नष्ट हो गया है।