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पर्यावरण : खाने का और दिखाने का और


उतनी दूरी से किसी कमज़ोर का हक़ छीन कर अपने लिए प्राकृतिक साधन का दोहन कर रहा है। दिल्ली जमुना किनारे है, उसका पानी तो वह पिएगी ही, पर कम पड़ेगा तो दूर गंगा का पानी भी खींच लाएगी। इंदौर पहले अपनी छोटी-सी खान नदी को अपने प्रदूषण से मार देगा और फिर दूर बह रही नर्मदा का पानी उठा लाएगा। भोपाल पहले अपने समद्र जैसे विशाल ताल को कचराघर बना लेगा, फिर 80 किलोमीटर दूर बह रही नर्मदा से पीने के पानी का प्रबंध करने की योजना बना सकता है। पर नर्मदा के किनारे ही बसा जबलपुर नर्मदा के पानी से वंचित रहेगा, क्योंकि इतना पैसा नहीं है।

कुल मिलाकर प्राकृतिक साधनों की इस छीना झपटी ने, उनके दुरुपयोग ने पर्यावरण के हर अंग पर चोट की है और इस तरह सीधे उससे जुड़ी आबादी के एक बड़े भाग को और भी बुरी हालत में धकेला है। आधुनिक विज्ञान, तकनीक और विकास के नाम पर हो रही यह लूटपाट प्रकृति से (खास कर उसके ऐसे भंडारों से, जो दोबारा नहीं भरे जा सकेंगे, जैसे कोयला, खनिज पेट्रोल आदि) पहले से कहीं ज़्यादा कच्चा माल खींच कर उसे अपनी ज़रूरत के लिए नहीं, लालच के लिए पक्के माल में बदल रही है। विकास कच्चे माल को पक्के माल में बदलने की प्रक्रिया में जो कचरा पैदा करता है, उसे ठीक से ठिकाने भी लगाना नहीं चाहता। उसे वह ज्यों-का-त्यों प्रकृति के दरवाज़े पर पटक आना जानता है। इस तरह इसने हर चीज़ को एक ऐसे उद्योग में बदल दिया है जो प्रकृति से ज़्यादा-से-ज़्यादा हड़पता है और बदले में इसे ऐसी कोई चीज़ नहीं देता, जिससे उसका चुकता हुआ भंडार फिर से भरे।

और देता भी है तो ऐसी रद्दी चीजें, धुआं, गंदा ज़हरीला पानी आदि कि प्रकृति में अपने को फिर संवारने की जो कला है, उसका जो संतुलन है वह डगमगा जाता है। यह डगमगाती प्रकृति, बिगड़ता पर्यावरण

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