रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाएं आदि। चौथा प्रदूषण वहां होता है जहां से इन उद्योगों का कच्चा माल आता है।
इनमें से पहले तीन तरह के प्रदूषणों का कुछ हल निकल सकता है, वह आज नहीं निकल पाया है तो इसका कारण है मज़दूर और नागरिक आंदोलनों की सुस्ती। आज भी परंपरागत मज़दूर आंदोलन उद्योग के भीतर के प्रदूषण को अपने संघर्ष का मुद्दा नहीं बना पाया है। ज्यादातर लड़ाई मज़दूरी वेतन या बोनस को लेकर होती है। इसलिए कभी प्रदूषण का सवाल उठे भी तो इसे भी पैसे से तोल लिया जाता है। मध्य प्रदेश में सारणी बिजली घर की मज़दूर यूनियन ने धुआं कम करने की मांग के बदले धुआं-भत्ता मांगा है।
दूसरा प्रदूषण उद्योग से बाहर निकलने वाली चीज़ों का है। अगर उससे पीड़ित नागरिक संगठित हो जाएं तो उससे भी लड़ा जा सकता है। पक्के माल के रूप में ही सामने आ रहे प्रदूषण से लड़ना ज़रा कठिन होगा, क्योंकि इसके लिए उन चीज़ों की खपत को ही चुनौती देनी पड़ेगी। लेकिन विकास के इस ढांचे के बने रहते चौथी तरह के, प्राकृतिक साधनों के कच्चे माल के रूप में दोहन के कारण हो रहे प्रदूषण से लड़ना सबसे कठिन काम होगा क्योंकि एक तो इस तरह का प्रदूषण हमारे आसपास नहीं काफ़ी दूर होता है और उसका जिन पर असर पड़ता है-वनवासियों पर, मछुआरों पर, बंजारा समुदायों पर, छोटे किसानों, भूमिहीनों पर, वे सब हमारी-आपकी आंखों से ओझल रहते हैं।
ऐसी जगहों से भी विरोध की कुछ आवाजें उठ ज़रूर रही हैं पर उनकी कोशिशें पूरे समाज की धारा के एकदम विपरीत होने के कारण जल्दी दब जाती हैं, दबा दी जाती हैं। ऐसे आंदोलन अक्सर अपने बचपन में ही असमय मर जाते हैं।
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