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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१०४

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पर्यावरण : खाने का और दिखाने का और

फिर भी पर्यावरण के बचाव के लिए उठी इन छोटी-मोटी आवाज़ों ने सरकार के कान खड़े किए हैं। पर्यावरण की वास्तविक चिंता की फुसफुसाहट बढ़े तो उसे नक़ली चिंता के एक लाउडस्पीकर से भी दबाया जा सकता है। बेमन से कुछ विभाग, कुछ कानून बना दिए गए हैं। उनको लागू करने वाला ढांचा जन्म से ही अपाहिज रखा जाता है। जल प्रदूषण नियंत्रण क़ानून को बने 10 साल हो जाएंगे। पर आज तक उसने नदियों को गिरवी रख रहे उद्योगों को, नगरपालिकाओं को कोई चुनौती भी नहीं दी है। पहले केंद्र में और अब सभी राज्यों में खुल रहे पर्यावरण विभाग भी उन थानों से बेहतर नहीं हो पाएंगे जो अपराध कम करने के लिए खुलते हैं।

पर्यावरण की इस चिंता ने पिछले दिनों पर्यावरण शिक्षा का भी नारा दिया है। विश्वविद्यालयों में तो यह शिक्षा शुरू हो गई है, अब स्कूलों में भी यह लागू होने वाली है। पर इस मामले में शिक्षा और चेतना का फ़र्क़ करना होगा। पर्यावरण की चेतना चाहिए, शिक्षा या डिग्री नहीं। चेतना बिगड़ते पर्यावरण के कारणों को ढूंढ़ने और उनसे लड़ने की ओर ले जाएगी, महज शिक्षा विशेषज्ञ तैयार करेगी जो अंततः उन्हीं अपाहिज विभागों में नौकरी पा लेंगे। नकली चिंता का यह दायरा हज़म किए जा रहे पर्यावरण से ध्यान हटाने के लिए ऐसी ही दिखावटी चीजें, हल और योजनाएं सामने रखता जाएगा। जब तक पर्यावरण की चेतना नहीं जागती, जब तक विकास के इस देवता पर चढ़ाया जा रहा सिंदूर नहीं उतारा जाता तब तक पर्यावरण लूटा जाता रहेगा, उस पर टिकी तीन-चौथाई आबादी की ज़िंदगी बद से बदतर होती जाएगी। लेकिन विकास की इस धारा को चुनौती देकर विकल्प खोजना एक बड़ा सवाल है। अन्याय गैर बराबरी से लड़ने की प्रेरणा देने वाली मार्क्सवाद विचाराधाराओं तक

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