बीजों के सौदागर
अभी इधर हम हरी क्रांति के नुक़सान-लाभ की कोई ठीक बहस भी नहीं चला पाए हैं कि उधर हरी क्रांति लादने वाले हम जैसे देशों को एक और भयानक धंधे में झोंकने की तैयारी पूरी कर चुके हैं। हरी क्रांति का यह 'दूसरा चरण' हमारे बीजों की नींव पर खड़ा हुआ है और इस चरण में उत्तरी दुनिया के अमीर देशों की कुछ इनी-गिनी कंपनियों ने कोई 500 अरब रुपए लगाए हैं। कई देशों में धंधा करने वाली ये दादा कंपनियां बीज के धंधे में इसलिए नहीं उतरी हैं कि उन्हें दुनिया की खेती सुधारनी है, फ़सल बढ़ानी है और भुखमरी से निपटना है। इनका पहला और आखरी लक्ष्य है दुनिया की खेती को अपने हाथ में समेट कर उसका फ़ायदा अपनी जेब में डालना।
हरी क्रांति ने पिछले 14 सालों में अपना हल-बखर चला कर तीसरी दुनिया के देशों में इस नए बीज-धंधे को बोने के लिए खेत तैयार कर लिया है। 'ज़्यादा फ़सल' देने वाले बीजों के साथ अनिवार्य रूप से आने वाली बनावटी खाद और कीटनाशकों के पिटारों ने इन दादा कंपनियों की आंख खोल दी है और इसलिए अब उनकी आंखों में खटक रहा है वह साधारण छोटा-सा देशी बीज, जो कभी भी उनको चुनौती दे सकता है। इसलिए अब उसको तीसरी दुनिया के हर खेत से हटाने और उसके बदले कंपनी के