पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१०७

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अनुपम मिश्र


'प्रामाणिक उत्तम बीज' ठूँसने की भारी कोशिशें की जा रही हैं।

बीजों के भीमकाय सौदे को समझने के लिए हमें पहले बीज के रहस्य को समझना होगा। धरती के गिने जाने लायक़ कोई तीन लाख पौधों में से अब तक बस कोई 30,000 पौधों का सरसरी तौर पर अध्ययन हो पाया है। इनमें से कोई 3000 पौधों पर थोड़ा ज्यादा काम हुआ है। हमारी थाली-पत्तल में जो कुछ भी परोसा जाता है उसका 90 फ़ीसदी बस केवल 30 पौधों में से आता है। इनमें भी केवल तीन पौधे-गेहूं, चावल और मक्का-हमारे कुल भोजन का 75 फ़ीसदी भाग जुटाते हैं। लेकिन प्रागैतिहासिक लोग स्वाद के मामले में इतने 'गरीब' नहीं थे। बीजों के जानकार बताते हैं कि हमारे पूर्वज कोई 1500 से 2000 तरह के पौधों से अपना भोजन चुनते थे। पर फिर खेती की खोज के साथ-साथ पौधों की विविधता घटती चली गई और कल मिलाकर खेती का इतिहास तरह-तरह के स्वाद की कंजूसी का इतिहास बन गया।

खाना जुटाने वाले पौधों के प्रकार ज़रूर सिकुड़ते गए पर तीसरी दुनिया के देशों में इन सीमित फ़सलों में भी गजब की विविधता कायम रही। यह बहुत ज़रूरी थी। एक ही किस्म का गेहूं, धान, या दाल मौसम के बदलते रूप, कीड़ों के हमले या अगमारी जैसे फ़सलों के रोगों के आगे टिक नहीं सकते थे। इसलिए पिछले नौ हज़ार सालों में तीसरी दुनिया के किसानों ने आज की गिनीचुनी फ़सलों की हज़ारों किस्में खोजी थीं, उनको पाला था और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनको आगे बढ़ाया था। अब यह बात भी सब लोग जानने लगे हैं कि आज गरीब माने जाने वाले देश बीजों की किस्मों के मामले में बहुत ही अमीर रहे हैं और आज के अमीर देशों की प्लेटों पर परोसा जाने वाला भोजन इन्हीं 'बीज-अमीर' देशों से लाया गया था। अमीर दुनिया में आज बोए जा रहे बीजों के इतिहास में झांकें तो हम भारत, बर्मा, मलेशिया, जावा, चीन, अफ़ग़ानिस्तान, पेरू और ग्वाटेमाला व मैक्सिको के खेतों तक चले आएंगे।

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