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बीजों के सौदागर


पर आज 'बीज-अमीर' देश ख़तरे में हैं। अब तक हर खेत में फैली बीजों की विलक्षण विविधता गायब हो चली है-हरी क्रांति के लिए रास्ता बनाने में। आज से कोई 80 साल पहले भारत में केवल धान की ही 30,000 क़िस्में बोई जाती थीं। यानी हर दसवें-बारहवें खेत में धान की क़िस्म बदल जाती थी, बदल जाते थे कम या ज़्यादा पानी सहने, कीड़ों, खरपतवारों से लड़ने के उसके गुण, उसका स्वाद। लेकिन अगले 15 सालों बाद हमारे पास सिर्फ़ 15 क़स्में बच जाएंगी। सैकड़ों सालों से अपनी तरह-तरह की प्याज़ के लिए प्रसिद्ध मिस्र में अब सिर्फ एक ही क़िस्म बाक़ी रह गई है: उन्नत गीजा 61 सऊदी अरब ने तेल ज़रूर पा लिया है पर पिछले 30 सालों में उसने जौ की 70 प्रतिशत क़िस्में खो दी हैं। हरी क्रांति के महावत से दोस्ती करने के चक्कर में इन सभी देशों ने पीढ़ियों से सुरक्षित बीज-क़िलों की मज़बूत दीवारें ढहाई हैं।

'बीज-अमीर' देशों की किस्मों में घुन लग गया है अब। जिन 'बीज-ग़रीब' देशों के कारण घुन लगा है अब उन्हीं देशों की सरकारें और दादा कंपनियां इन देसी बीजों को बचाने की आवाज़ लगाने लगी हैं। इसके पीछे भी उनकी नीयत अच्छी नहीं है। उनके यहां से बनी उन्नत क़िस्म की प्रजातियां भी उन्हीं के कीटनाशक दवाओं के बावजूद नए तरह के कीड़ों के सामने गच्चा खा जाती हैं। ऐसे में उन्नत बीज के दबदबे को बनाए रखने और कृषि विज्ञान का बिजूका गाड़े रखने के लिए उन्हें फिर से किसी पुराने मज़बूत देसी बीज से संकर बीज बनाने की ज़रूरत आ पड़ती है। इसलिए देसी बीजों का भंडार बनाने का काम शुरू हो गया है।

आज दुनिया भर में 11 केंद्रों में भारी सुरक्षा और भारी तामझाम के बीच देसी बीजों के बैंक बने हैं। इनमें से कुछ तो सीधे-सीधे दादा कंपनियों के बैंक हैं और जो कुछ संयुक्त राष्ट्रसंघ के खाद्य कार्यक्रम आदि जैसे संदेह से परे संगठनों के भंडार हैं, उनके भी अनुदान के इतिहास में जाएं तो दो-तीन 'दानवीर' दादा कंपनियां सामने आती हैं। संवर्धन की

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