पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/११०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
बीजों के सौदागर


पोथे की क़ीमत है 25000 अमेरिकी डॉलर। पोथे के एक-एक शब्द से शानदार मुनाफ़े की फ़सल काटी जा सकती है तभी तो यह बिक रही है। बीजों में बढ़ती रुचि का एक अंदाज़ इस धंधे के केंद्रीकरण से भी लग सकता है। दादा कंपनियां बीज के धंधे में लगी दो-चार छोटी कंपनियों को हर साल अपने में विलीन कर रही हैं। इंग्लैंड में सन् 80 के अंत में 'प्लांट ब्रीडर्स राइट' क़ानून पास होने के आसपास एक बड़ी कंपनी ने कोई 100 छोटी कंपनियों को पूरा-पूरा ख़रीद लिया था। 'अपनी बीज कंपनी कैसे बेचें?' जैसी गोष्ठियां भी होने लगी हैं।

ये नए 'बीजपति' कौन हैं? वही जो अब तक दवाओं, पेट्रोल, रासायनिक खादों और कीटनाशक दवाओं का धंधा करते थे। पर्यावरण की बढ़ती चेतना से इनकी बदनामी भी बढ़ी थी, इसलिए अब ये अपना पैसा बीज जैसे 'साफ़' धंधे में लगा रहे हैं। सीबा-गायगी, यूनियन कार्बाइड, सेंडोज, एस्सो, शैल देखते-ही-देखते इस धंधे में उतर आए हैं।

इस होड़ का हम सब पर क्या असर होगा? सदियों से विकेंद्रित स्तर पर यानी अलग-अलग किसानों के घरों में बंडों, खंतियों में सुरक्षित बीजों की क़िस्मों का अपहरण होगा। और फिर इन्हीं में से कुछ क़िस्में छांटकर, उन्नत बनाकर हमें दी जाएंगी। पर दूल्हा अकेला नहीं आता, साथ पूरी बारात लाता है। तीसरी दुनिया के देशों में इससे रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का बाज़ार कोई दस गुणा तक बढ़ जाएगा।

बीज धंधे की बाढ़ आ रही है, पर हमने उससे बचने की अभी तक कोई तैयारी नहीं की है। 15 साल पहले देश के एक प्रसिद्ध (और अब बिल्कुल भुलाए जा चुके) धान विशेषज्ञ डॉ. राधेलाल रिछारिया ने देसी धान की शानदार मज़बूत व स्वावलंबी क़िस्मों की तरफ़दारी करते हुए विदेशी संकर क़िस्मों का विरोध किया था। विरोध का यह पहला अंकुर उसी समय मसल दिया गया। श्री रिछारिया को धान शोध के रायपुर और

91