पानी से होने वाली खेती। यह कोई बताने की बात नहीं है कि बारानी का तरीक़ा इस देश में यहां से वहां तक फैला हुआ है।
लेकिन राष्ट्रीय योजना बनाने से पहले केंद्रीय सरकार ने इसका बाक़ायदा सर्वे किया है और पाया है कि देश की कुल खेती का 73 प्रतिशत बारानी है और कुल अनाज-उपज का 42 प्रतिशत बारानी से उपजता है।
सर्वे वालों को इस बात का बहुत दुख है कि 6 पंचवर्षीय योजनाओं के बाद भी ज़्यादातर बारानी को लाभकारी नहीं बनाया जा सका है। उसका कहना है कि बारानी की ज़मीन में वर्षा के बाद नमी क़ायम रखना एक बड़ी समस्या है और इसमें फ़सल के दानों को पनपाना भी बहुत कठिन काम है। इसलिए इन दो कठिन मामलों पर किसानों की मदद करने के लिए हर जिले में एक-एक विज्ञान केंद्र खोला जाएगा। अभी ऐसे केंद्र 89 जिलों में है। इन केंद्रों के ज़रिए इनको उम्दा बीज, खाद, कीड़ेमार दवाएं और आधुनिक कृषि की तकनीक पहुंचाई जाएगी और इस तरह खेती को लाभदायक और वैज्ञानिक बनाया जाएगा।
दिक़्क़त वहीं से शुरू होगी। हर चीज़ को लाभदायक और वैज्ञानिक बनाने के चक्कर में घोषणाओं ने और ज़्यादातर उनके पीछे चलने वाले नेतृत्व ने कई अच्छे उपजाऊ इलाक़ों को बर्बाद किया है। जो प्यार बारानी पर बरसता दिखने वाला है, वह आज तक तो सिंचित क्षेत्र पर बरसता रहा है। अधिक-से-अधिक खेतों को नहरों के पानी से सींचने से हरित क्रांति लाने की कोशिश ने बारानी खेती की बहुत उपेक्षा की है। जिनकी आंखों में बड़े बांध बड़ी योजनाएं बसी हैं उन्हें बारानी खेती पिछड़ी लगती है। ऐसे इलाक़े, ऐसे किसान, पिछड़े और खेती में बोई जाने वाली फ़सलें परंपरागत कहलाती हैं।
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