बारानी के विकास की सभी योजनाएं परंपरागत और आधुनिक शब्दों के ख़तरनाक खेल से ऊपर नहीं उठती दिखती। इसलिए योजना बनाने; और उसे लानेवाले इस खेती के उद्धारक की तरह सामने आ रहे हैं। इसलिए वे बारानी के वर्षों के बाद नमी सोखने से लेकर अच्छे उन्नत बीज लाने की बातें कर रहे हैं। बारानी करने वाले किसान ऐसा कहें कि हर किसान से कोई विशेषज्ञ यह पूछेगा कि बारानी वर्षा की नमी सोखना एक समस्या है तो वह हंसेगा। वह समस्या नहीं वह तो तरीका है। तरीक़े को समस्या मान कर देखने लगे तो कुल खेती समस्या बन जाएगी।
बारानी में वर्षा नमी रोकने के लिए हर इलाके के किसानों ने अपने अपने ढंग से शानदार उपाय निकाले हैं। इसका मुख्य आयाम रहा है-ऊंचे-नीचे खेतों में मेड़ बांधकर बरसात का पानी रोकना। मध्यप्रदेश के एक भाग में वह हवेली पद्धति कहलाती है। वह खेती किसान धरती और शबार तीनों की ज़रूरत का ख़्याल रखती है। बारानी में बदल-बदल कर अपने क्रम से आने वाला फ़सल चक्र धरती के उपजाऊपन का भी ख्याल रखता है। कुछ फ़सलें खेत से कुछ ख़ास तत्व उधार लेकर पनपती हैं तो उनके बाद आने वाली फ़सलें खेती को फिर से तत्व वापस लौटाकर उपजाऊपन का पिछला हिसाब बराबर करने की कोशिश करती हैं-जैसे दलहन की फ़सलें। इधर लेन-देन में जो भूल-चूक रह जाती है, उसे किसान कंपोस्ट और गोबर की खाद से पूरा करता है।
लेकिन तिजोरी भत्ते वाला बाज़ार हो, जैसा कि वह अनाथ हो चला है वो इसमें मदद नहीं देखती। अन्न का बाज़ार खेतों का धंधा चलाने वाले बाज़ार का फ़र्क़ किए बिना खेती की और देश के कुल उत्पादन में उसके योगदान को नहीं समझा जा सकता। बारानी को राष्ट्रीय योजना
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