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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/११९

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अनुपम मिश्र

नया सिंचाई विभाग बेहद सक्रिय हो उठा। सिंचाई की रीढ़ बताए गए तालाबों की 'बेहतर देखभाल' के लिए फ़टाफ़ट नए-नए क़ानून बनाए गए। इन्हें पहली नवंबर 1873 से लागू किया गया। सारे नए कायदे क़ानून तालाबों से वसूले जाने वाले 'सिंचाई-कर' को ध्यान में रख कर बनाए गए थे। इसलिए पाया गया कि जो तालाब उस समय 300 रुपए की आमदनी भी नहीं दे सकते भला उनके रखरखाव की ज़िम्मेदारी उन महान कार्यालयों पर क्यों आए, जिनके मालिक के साम्राज्य में सूरज कभी अस्त नहीं होता। लिहाज़ा 300 रुपए तक की आमदनी देने वाले तालाब विभाग के दायित्व से हटा कर फिर से उन्हीं किसानों को सौंप दिए जो कुछ ही बरस पहले तक इनकी देखभाल करते थे। बिल्कुल बदतमीज़ी न दिखे शायद इसलिए इस फैसले में इतना और जोड़ दिया गया कि इन तालाबों के रखरखाव से संबंधित छोटे-छोटे काम तो गांव वाले खुद कर ही लेंगे पर यदि कोई बड़ी मरम्मत का काम आया तो सरकार पूरी उदारता के साथ मदद देगी। इस तरह 'गंवाऊ' और 'कमाऊ' तालाबों का बंटवारा किया गया। स्वतंत्र सिंचाई विभाग के पास रह गए मंझोले और बड़े तालाब। तालाबों से लाभ कमाने, यानी अधिकार जताने और मरम्मत करने यानी कर्तव्य निभाने के बीच की लाइन खींच दी गई। पानी-कर तो बाकायदा वसूला जाएगा पर यदि मरम्मत की ज़रूरत आ पड़ी तो 'तालाब इंस्पेक्टर, अमलदार और तालुकेदार रैयत से इस काम के लिए चंदा मांगेंगे।'

तालाबों से पानी-कर खींचा जाता रहा पर गाद नहीं निकाली गई कभी। धीरे-धीरे तालाब बिगड़ते गए। उधर पानी-कर की दरें भी बढ़ाई जाती रहीं। किसानों में असंतोष उभरा। बीसवीं सदी आने ही वाली थी। बिगड़ती जा रही सिंचाई व्यवस्था को बीसवीं सदी में ले जाने के ख्याल से ही शायद तब घोषणा की गई कि हर वर्ष 1000 तालाबों की मरम्मत

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