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लोक बुद्धि की जीवट यात्रा


कुछ कहना ज़रूरी लगा तभी उन्होंने लिखा। अपने लेखन के बारे में अनुपम जी निसंकोच कहते रहे हैं कि उन्होंने कोई मौलिक या अद्वितीय विचार नहीं दिया है, समाज और परंपरा में व्याप्त विचारों की उन्होंने पुनर्प्रस्तुति की है। एक तरह से कहा जा सकता है कि उनका लेखन एक सामाजिक कार्यकर्ता की नज़रों से दिख रही दुनिया की वास्तविक तस्वीर है। इस तस्वीर के लिए कैमरे को कहां रखना है, तस्वीर का फ्रेम क्या होगा, रंग, रोशनी, आकार, प्रकार इन सबों पर शांत और संकोची दिखने वाले अनुपम जी की अद्भुत आंतरिक चुस्ती है।

हिंदी के बहुत कम लोग जानते हैं कि अनुपम जी गीतफ़रोश जैसी प्रसिद्ध कविता को रचने वाले कवि भवानीप्रसाद मिश्र के पुत्र हैं। उनके जीवन में कई ऐसे अवसर आए जब वे चमचमाती दुनिया में प्रवेश कर सकते थे, लेकिन उन्होंने सादगी का एक सहज रास्ता चुना। हिंदी पत्रकारिता का एक नया मानदंड स्थापित करने वाले अख़बार 'जनसत्ता' की जब योजना बन रही थी तो रामनाथ गोयनका और प्रभाष जोशी की बहुत इच्छा थी कि अनुपम मिश्र 'जनसत्ता' में आ जाएं, क्योंकि बिहार आंदोलन के दौरान 'इंडियन एक्सप्रेस' से निकलने वाले 'प्रजानीति' में वे काफ़ी सक्रिय थे। 'जनसत्ता' से मित्रता रखते हुए अनुपम ने अपनी सारी सक्रियता गांधी शांति प्रतिष्ठान और पर्यावरण से जुड़ी गतिविधियों को सौंप दी। अपने किए का कभी कोई उल्लेख नहीं, गुमान नहीं। सहजता और सरलता भी ऐसी जो ओढ़ी हुई या हासिल की हुई नहीं, बिल्कुल हृदय से निसृत सहजता। दरअसल अनुपम मिश्र ऐसे लोगों में से हैं जो उन्हीं विचारों को लिखते और बोलते हैं जिन्हें वे जीना जानते हैं और जीना चाहते हैं। उनकी विनम्रता और सहजता को समझने के लिए प्रभाष जोशी की ये पंक्तियां बड़ी सटीक लगती हैं- 'भवानीप्रसाद मिश्र के पुत्र होने और चमचमाती दुनिया छोड़कर गांधी संस्था में काम करने का एहसान भी वह दूसरों पर नहीं करता था। ऐसे रहता, जैसे रहने की क्षमा मांग रहा हो। आपको लजाने

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