पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१२५

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अनुपम मिश्र


इतने सारे गांवों में ऐसे गांव कितने होते होंगे जो अपना जंगल खुद लगाने की इजाज़त मांगते हैं? अलवर प्रशासन के सामने शायद गोपालपुरा के अलावा ऐसी कोई दूसरी अर्जी तो नहीं आई थी।

एक घंटे की दूरी से कोई नहीं आ पाया, गांव का जंगल देख कर उसकी इजाज़त देने। पर इस बीच अकाल आ गया। पौधों को बचाना मुश्किल हो गया। बहुत से पौधे मर भी गए। फिर भी लोगों ने हिम्मत नहीं हारी। बचे-खुचे पौधों की रखवाली करते रहे। फिर बरसात भी आ गई। अपने और पास-पड़ोस के गांव के पशुओं से इलाके को बचाए चले जाने के कारण उस हिस्से में कहने लायक जंगल शायद नहीं खड़ा हो पाया पर आसपास और दूर-दूर की उजाड़ पहाड़ियों के बीच एक छोटा-सा हरा धब्बा ज़रूर दिखने लगा था।

गोपालपुरा के अवैध तालाब और पेड़-पौधों के प्रसंग को कुछ देर यहीं छोड़ कर थोड़ी देर के लिए अलवर से बाहर निकल आएं। जिले के साथ ही लगा है हरियाणा का नूह इलाक़ा। इस प्रसंग के काफ़ी पहले नूह में पत्थर की खदानों में कुछ बंधुआ मजदूर मिले थे। उनको मुक्त कराने का श्रेय बंधुआ मुक्ति मोर्चे को जाता है। मोर्चे ने उन्हें अलवर प्रशासन को सौंप दिया, क्योंकि वे अलवर जिले के ही थे। पिछले कुछ वर्षों में सरकारों ने बंधुआ मुक्ति का खूब ढोल पीटा है। पोल न खुले, इसलिए जिला प्रशासन ने इन छह परिवारों को स्वीकार तो कर लिया पर उन्हें कहां कैसे बसाएगी यह सोचते-सोचते कई दिन बीत गए। दो-चार जगह खोजी गईं पर कहीं दमदार आबादी के कारण तो कहीं वन विभाग की जमीन के कानूनों के कारण वह उन्हें ठीक से बसा नहीं पा रही थी। सिर पर अनिश्चित भविष्य का पूरा बोझा उठाए इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे इन परिवारों का संपर्क एक बार तरुण भारत संघ से भी हुआ। संघ ने तब अपने सीमित साधनों से कुछ बचा

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