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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१२६

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गोपालपुरा: न बंधुआ बसे, न पेड़ बचे


कर उनके लिए गल्ले का भी कुछ इंतज़ाम किया था पर यह बात न बंधुआ मुक्ति मोर्चा को पता चली, न ज़िला प्रशासन को। सिर्फ इसलिए कि छोटी-सी ग्रामीण संस्था ने इसे अपना कर्तव्य समझ कर किया था, अपना प्रचार करने के लिए नहीं।

वापस लौटें गोपालपुरा के वन पर। इस बीच शायद संस्था और गांव ने प्रशासन से वन वाली ज़मीन पर फैसला लेने का भी अनुरोध एकाधिक बार किया होगा। शायद प्रशासन की कुछ मजबूरी रही होगी कि ऐसी इजाज़त कहीं एक बार दे बैठे तो न जाने कितने गांव वन लगाने के लिए जमीन मांगने लगेंगे। तेज़ी से घट रहे वन क्षेत्र को फिर से संतुलित करने के लिए ऐसी मांग ठीक भी हो सकती थी शायद। बार-बार शायद लिखने की ज़रूरत नहीं है शायद। पर राज चलाना कोई खेल तो नहीं है। गांव वाले इसी तरह अपने पेड़ खुद लगाने लग जाएं तो फिर सरकार इस मोर्चे पर क्या करेगी। लोगों की भागीदारी फ़ाइलों में ही शोभा देती है।

भीतर-भीतर क्या हुआ यह तो कोई खोजी पत्रकार ही निकाल सकता था। इसलिए यह पेचीदा काम उन्हीं पर छोड़ आगे बढ़ें। थानागाजी तहसील के तहसीलदार ने एक दिन सुबह गांव गोपालपुरा को नोटिस भेज कर देश के वनीकरण के इतिहास में दर्ज होने लायक़ काम कर दिखाया। नोटिस में कहा गया था कि गांव ने बिना इजाजत के पेड़ लगाए हैं इसलिए उस पर 4995 रुपए का दंड किया जाता है।

संस्था के लोग घबरा कर दिल्ली आए। यहां पर्यावरण का काम कर रही एक संस्था से मिले। संस्था ने दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार से बात की और दूसरे दिन उस के पहले पेज पर इस भद्दे नोटिस की खबर छपवाई-'जहां पेड़ लगाना अपराध है'। इस विचित्र ख़बर को पढ़ने वाले हज़ारों पाठकों में उस दिन प्रधानमंत्री सचिवालय के कोई अधिकारी

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