भी थे। उन्होंने अपने प्रभावशाली दफ्तर से राजस्थान के मुख्य सचिव आदि को खटखटाया, पूछा कि यह सब बेवकूफ़ी कैसे हो गई? ऐसे मौक़ों पर जो खलबली मचती है, वह सब मच गई। कलेक्टर वगैरह सभी सकते में आ गए।
तब न जाने किस स्तर पर किसके दिमाग में एक गलती को सुधार लेने के बदले में और कुछ नई गलतियां कर लेने की बात घुस गई। रातोंरात फ़ैसला ले लिया गया कि गोपालपुरा की इसी विवादास्पद ज़मीन पर उन छह बंधुआ परिवारों को बसा दिया जाए, जिनके बारे में प्रशासन अभी तक कुछ सोच ही नहीं पाया था। बंधुआ-पुनर्वास की ढाल ढल चुकी थी। सुबह गोपालपुरा के उसी हिस्से में जहां लोगों ने दीवारबंदी करके पौधे लगाए थे, दीवार तोड़ कर बंधुआ परिवार बसाए गए।
इस बीच दिल्ली के पांच-छह बड़े अखबारों ने 'जहां पेड़ लगाना जुर्म है' खबर पर संपादकीय लिख डाले। जब दिल्ली के अखबारों में यह सब लिखा-पढ़ा जा रहा था, तब बंधुआओं के बसाने के लिए उस गांव के वन की दीवार तोड़ कर भीतर उनके लिए रहने की जगह बनाने, कटाई-छटाई शुरू हो चुकी थी। उस कटाई-छटाई की ख़बरें भी दिल्ली आ गई और अखबारों में छप गया कि प्रशासन ने पुलिस संरक्षण में बंधुआ बसाए और गांव वालों के लगाए गए पेड़ कटवा दिए।
उधर अपने विरुद्ध ऐसा भयंकर प्रचार उठता देखकर अलवर प्रशासन घबरा तो गया फिर जल्दी ही उसने बंधुआ-ढाल से अपने बचाव की तैयारी कर ली और सरकारी सफ़ाई लेकर जीपें दिल्ली के अखबारों की तरफ़ दौड़ा दी। लेकिन अलवर से दिल्ली आने वाली सड़क पर दिल्ली से कुछ पत्रकार भी गोपालपुरा के लिए चल पड़े थे। बस इसके आगे कीचड़-ही-कीचड़ है और उस कीचड़ में ऐसे-ऐसे
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