अखबार वाले फिसलते दिखते हैं जिनके शौर्य से कहते हैं सरकारें थर्राती हैं। बंधुआओं की मुक्ति के लिए पूरे समर्पित भाव से काम कर रहे समाजसेवक भी न जाने किस दुविधा में यहां फिसल जाते हैं। परती ज़मीन को हरा-भरा करने के लिए पूरे देश में काम करने वाली प्रसिद्ध समाजसेवी संस्था भी इसमें टपकती है और प्रशासन के योग्यतम माने गए अधिकारी भी इसमें बिलटते हैं।
अचानक कलेक्टर की कोई जादू की छड़ी चलती है। पूरी घटना को एक नए दृष्टिकोण से देखा जाता है: गांव वाले, संस्था वाले बदमाश हैं, पेड़ नहीं लगे थे, वहां बस केवल कुछ झाड़ियां थीं, इधर-उधर दीवारबंदी थी तो बस ज़मीन पर नाजायज़ क़ब्ज़ा करने के लिए। गांव ने बंधुआओं को न बसने देने का यह षड्यंत्र रचा होगा। गांव पर प्रशासन के 'अत्याचार' से बेहद नाराज़ इस अखबार का युवा पत्रकार अलवर में कलेक्टर और उनके साथियों पर बरस रहा था, कि उसे अचानक भीतर आने का संकेत मिलता है। शायद एकांत में अधिकारी उसे समझाते हैं- पूरा किस्सा एक बेमतलब की संस्था और बंधुआ विरोधी गांव का है जिसे पर्यावरण का रंग दिया जा रहा है और आप नाहक इनके चक्कर में पड़ रहे हो।
अगले दिन इस अखबार के पहले पन्ने पर किस्सा छपता है। 'कहीं हम पर्यावरणवालों के चक्कर में भटक तो नहीं गए।' पूरे समाचार में गांव और संस्था की पिटाई करने की कोशिश होती है और बंधुआओं और सरकार का पक्ष लिया जाता है।
बाद का किस्सा लंबा है। उसे यहीं छोड़ दें। इतना ज़रूर लिखना होगा कि उसके बाद बंधुआओं को वहां 'बसा' कर उनके तमाम शुभचिंतक-पत्रकार, संपादक, प्रशासन और बंधुआओं को आजाद करवाने वाले समाजसेवक-कोई इस जगह नहीं आता। ऊबड़-खाबड़ पथरीली
109