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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१३

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अनुपम मिश्र


या आत्मदया में नहीं, सहज ही। जैसे उसका होना आप पर अतिक्रमण हो और इसलिए चाहता हो कि आप उसे माफ़ कर दें। जैसे किसी पर उसका कोई अधिकार ही न हो और उसे जो मिला है या मिल रहा है वह देने वाले की कृपा हो। मई बहत्तर में छतरपुर में डाकुओं के समर्पण के बाद लौटने के लिए चंबल घाटी शांति मिशन ने हमें एक जीप दे दी। हम चले तो अनुपम चकित। उसे भरोसा ही न हो कि अपने को एक पूरी जीप मिल सकती है। सच, इस जीप में अपन ही हैं और अपने कहने पर ही यह चलेगी। ऐसे विनम्र सेवक का आप क्या कर लेंगे?'

सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार और विलक्षण छायाकार अनुपम मिश्र की ओर पहली बार देश और समस्त भारतीय समाज का ध्यान 1983 में आकृष्ट हुआ जब उन्होंने 'देश का पर्यावरण' संपादित किया। यह सिलसिला जारी रहा और 1988 में उन्होंने 'हमारा पर्यावरण' संपादित किया। 1993 में उनकी पुस्तक गांधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित 'आज भी खरे हैं तालाब' ने तो हिंदी के इतिहास में अपना एक विशेष स्थान बना लिया। यह एक किंवदंती के रूप में न सिर्फ हिंदी में बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं में भी व्याप्त हो गई। सिर्फ प्रचार और प्रसार की दृष्टि से ही नहीं प्रभाव के संदर्भ में भी यह देश की महत्वपूर्ण किताब हो गई। इस किताब को पढ़कर न जाने कितने कार्यकर्ता तैयार हो गए जो तालाब बनाने के बहाने सामाजिक कार्यों में लग गए। जो समाज तालाब को भूल चुका था, या भूलने लगा था, इस किताब से प्रेरित होकर उसने हज़ारों पुराने तालाबों का जीर्णोद्धार किया और सैकड़ों नए तालाब बनाए। तालाब बनने के सिलसिले में कई जगहों पर समाज का खोया सामुदायिक जीवन फिर से वापस आ गया या बीमार सामुदायिक जीवन में नई जान आ गई। इस तरह यह मानना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि 'आज भी खरे हैं तालाब' तालाब की परंपरा, संस्कृति और तकनीक पर महज़ एक किताब नहीं,

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