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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१३३

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अनुपम मिश्र


चोटियों पर बसने वाले इन लोगों ने सुबह के उजाले में पाया कि गौना ताल फूट चुका है, चारों तरफ़ बड़ी-बड़ी चट्टानें हज़ारों पेड़ों का मलबा, और रेत-ही-रेत पड़ी है।

ताल की पिछली तरफ़ से आने वाली नदियों के ऊपरी हिस्सों में जगह-जगह भूस्खलन हुआ था, उसके साथ सैकड़ों पेड़ उखड़-उखड़ कर नीचे चले आए थे। इस सारे मलबे को, टूट कर आने वाली बड़ी-बड़ी चट्टानों को गौना ताल अपनी 300 फ़ुट की गहराई में समाता गया, सतह ऊंची होती गई, और फिर लगातार ऊपर उठ रहे पानी ने ताल के मुंह पर रखी एक विशाल चट्टान को उखाड़ फेंका और देखते-ही-देखते सारा ताल खाली हो गया। घटना स्थल से लगभग तीन सौ किलोमीटर नीचे हरिद्वार तक इस का असर पड़ा था।

गौना ताल ने एक बहुत बड़े प्रलय को अपनी गहराई में समो कर उसका छोटा सा अंश ही बाहर फेंका था। उसने सन्' 70 में अपने आपको मिटा कर उत्तराखंड, तराई और दूर मैदान तक एक बड़े हिस्से को बचा लिया था। वह सारा मलबा उसके विशाल विस्तार और गइराई में न समाया होता तो सन् 70 की बाढ़ की तबाही के आंकड़े कुछ और ही होते। लगता है गौना ताल का जन्म बीसवीं सदी के सभ्यों की मूर्खताओं से आने वाले विनाश को थाम लेने के लिए ही हुआ था।

ठीक आज की तरह ही सन् 1893 तक यहां गौना ताल नहीं था। उन दिनों भी यहां यह विशाल घाटी ही थी। सन् 93 में घाटी के संकरे मुंह पर ऊपर से एक विशाल चट्टान गिर कर अड़ गई थी। घाटी की पिछली तरफ़ से आने वाली बिरही और उसकी सहायक नदियों का पानी मुंह पर अड़ी चट्टान के कारण धीरे-धीरे गहरी घाटी में फैलने लगा। अंग्रेजों का ज़माना था, प्रशासनिक क्षमता में वे सन् 1970 के प्रशासन से ज़्यादा कुशल साबित हुए। उस समय जन्म ले रहे गौना

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