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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१३४

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गौना ताल: प्रलय का शिलालेख


ताल के ऊपर बसे एक गांव में तारघर स्थापित किया और उसके माध्यम से ताल के जल स्तर की प्रगति पर नज़र रखे रहे। एक साल तक वे नदियां ताल में पानी भरती रहीं। जलस्तर लगभग 100 गज़ ऊंचा उठ गया। तारघर ने ख़तरे का तार नीचे भेज दिया। बिरही और अलकनंदा के किनारे नीचे दूर तक ख़तरे की घंटी बज गई। ताल सन् 1894 में फूट पड़ा, पर सन् 1970 की तरह एकाएक नहीं। किनारे के गांव खाली करवा लिए गए थे, प्रलय को झेलने की तैयारी थी। फूटने के बाद 400 गज़ का जल स्तर 300 फ़ुट मात्र रह गया था। ताल सिर्फ फूटा था, पर मिटा नहीं था। गोरे साहबों का संपर्क न सिर्फ ताल से बल्कि उसके आसपास की चोटियों पर बसे गांवों से भी बना रहा। उन दिनों एक अंग्रेज़ अधिकारी महीने में एक बार इस दुर्गम इलाके में आकर स्थानीय समस्याओं और झगड़ों को निपटाने के लिए एक कोर्ट लगाता था। विशाल ताल साहसी पर्यटकों को भी न्यौता देता था। ताल में नावें चलती थीं।

आज़ादी के बाद भी नावें चलती रहीं। सन् 60 के बाद ताल से 22 किलोमीटर की दूरी में गुज़रने वाली हरिद्वार बदरीनाथ मोटर-सड़क बन जाने से पर्यटकों की संख्या भी बढ़ गई। ताल में नाव की जगह मोटर वोट ने ले ली। ताल में पानी भरने वाली नदियों के जलागम क्षेत्र कुंआरी पर्वत के जंगल भी सन् '60 से 70' के बीच में कटते रहे। ताल से प्रशासन का संपर्क सिर्फ पर्यटन के विकास के नाम पर कायम रहा-वह ताल के इर्द-गिर्द बसे 13 गांवों को धीरे-धीरे भूलता गया। मुख्य मोटर सड़क से ताल तक पहुंचने के लिए (गांवों तक नहीं) 22 किलोमीटर लंबी एक सड़क भी बनाई जाने लगी। सड़क अभी 12 किलोमीटर ही बन पाई थी कि सन् 70 की जुलाई का वह तीसरा हफ्ता आ गया। ताल फूट जाने के बाद सड़क पूरी करने की ज़रूरत ही नहीं

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