समझी गई। सन् 1894 में गौना ताल के फटने की चेतावनी तार से भेजी थी, पर सन् 1970 में ताल फटने की ही खबर लग पाई।
बहरहाल, अब यहां गौनाताल नहीं है। पर उसमें पड़ी बड़ी-बड़ी चट्टानों पर पर्यावरण का एक स्थायी शिलालेख खुदा हुआ है। इस क्षेत्र में चारों तरफ़ बिखरी चट्टानें हमें बताना चाहती हैं कि जंगलों खासकर नदियों के जलागम क्षेत्र में खड़े जंगलों का हमारे पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है। पर हम 'शिलालेख' को पढ़ने के लिए तैयार नहीं हैं। लेकिन उत्तराखंड का 'चिपको' आंदोलन न केवल इस 'शिलालेख' को पढ़ चुका है, वह अपनी सीमित शक्ति और अति सीमित साधनों से इस की हिदायतों पर अमल भी कर रहा है।
जुलाई के तीसरे हफ़्ते में आंदोलन के कार्यकर्ताओं की एक टुकड़ी लगातार बारिश के बीच गौना ताल तक पहुंची और उसने ताल के मलबे के बीच से बह रही बिरही नदी के किनारे-किनारे मजनूं नामक एक पेड़ की कोई तीन हज़ार क़लमें रोपीं... मजनूं (विलों) के पेड़ में नदी के किनारों को बांध कर रखने का विशेष गुण है। इस इलाक़े में मजनूं का पेड़ पहली बार ही लगाया गया है। आंदोलन के कार्यकर्ताओं का पर्यावरण-प्रेम इस विलक्षण पौधे को कश्मीर की घाटी से खोजकर लाया था। कश्मीर में इस पेड़ के गुणों से परिचित होने के बाद आंदोलन के कार्यकर्ता इसका एक पौधा चमोली जिले में लाए थे। चूंकि इसकी क़लमें लगती हैं, इसलिए उस एक पेड़ की टहनियों से कई कलमें बना ली गईं और उन्हें गौना ताल के इलाके में रोपा गया। रोपण के लिए की गई यात्रा, तीन दिन तक रोपण करने वाली टुकड़ी के खाने-पीने आदि का सारा ख़र्च 'चिपको' आंदोलन को जन्म देने वाली संस्था दशौली ग्रामस्वराज्य संघ ने उठाया।
बरसात के इन कठिन दिनों में की गई इस यात्रा का उद्देश्य था-ताल
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