पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१३७

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अनुपम मिश्र


पागा और ईरानी गांव की हालत और भी खराब है। ये इस तरफ़ के अंतिम गांव हैं। बीच में बिरही नदी पड़ती है इसे पार करने के लिए यहां एक पैदल-पुल था, पर 70 की बाढ़ में यह भी बह गया। नया पुल स्वीकृत हुए पांच साल हो चुके हैं लेकिन अभी तक काम शुरू नहीं हो पाया है। इन दोनों गांव के लोग बरसात के दिनों में बिरही तक नदी पार कर के नहीं आ सकते। उन्हें पीछे के रास्ते से जोशीमठ तहसील के तपोवन गांव तक जाना पड़ता है। वहां तक आने-जाने का मतलब है छह से तेरह हज़ार फ़ुट की ऊंचाई पर लगभग 70 किलोमीटर की पैदल यात्रा।

गाड़ी गांव में रहने वाले आज़ाद हिंद फौज के एक भूतपूर्व सैनिक ने पिछले महीने सीधे प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर पूछा है, 'क्या आप हम तेरह गांवों के लोगों को भी अपनी प्रजा मानते हैं? यदि हां, तो हमारे लिए बाढ़ के इन दिनों में खाने-पीने का इंतज़ाम करवाइए। हम मुफ्त में नहीं लेकिन उचित दाम और उचित दूरी पर राशन मांग रहे हैं। यदि आप राशन नहीं दिलवा सकते तो क्या हम पड़ोसी देश चीन के साथ राशन की बात कर लें?'

भूतपूर्व सैनिक के गुस्से में दम है। बिरही की बाढ़ को उतरने में अभी एक महीना तक लग सकता है। इन चार हफ्तों में यहां के प्रशासन को किसी भी कीमत पर सस्ता गल्ला बांटने की कोई स्थायी व्यवस्था कर देनी चाहिए और अगले बरस ऐसे असंख्य गांवों में बाढ़ आने से पहले ही ठीक मात्रा में राशन पहुंचाने की स्थायी व्यवस्था बना लेनी चाहिए। बाढ़ तो हर बरस आएगी-जब तक हम गौना ताल के मलबे पर लिखे शिलालेख को पढ़ नहीं पाएंगे, पढ़कर समझ नहीं पाएंगे।

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