साध्य, साधन और साधना
यह शीर्षक न तो अलंकार के लिए है, न अहंकार के लिए। सचमुच ऐसा लगता है कि समाज में काम कर रही छोटी-बड़ी संस्थाओं को, उनके कुशल संचालकों को, हम कार्यकर्ताओं को, और इस सारे काम को ठीक से चलाने के लिए पैसा जुटाने वाली उदारमना, देसी-विदेशी अनुदान संस्थाओं को आगे-पीछे इन तीन शब्दों पर सोचना तो चाहिए ही। साध्य-साधन पर तो कुछ बातचीत होती है, लेकिन इसमें साधना भी जुड़ना चाहिए।
साधन उसी गांव, मोहल्ले, शहर में जुटाए जाएं या कि सात समुंदर पार से आए-इसमें पर्याप्त मतभेद हो सकते हैं पर कम-से-कम साध्य तो हमारे हों। कुछ अपवाद छोड़ दें तो प्रायः होता यही है कि साधनों की बात तो दूर हम साध्य भी अपने नहीं देख पाते। यहां साध्य शब्द अपने संपूर्ण अर्थ में भी है और काम चलाऊ हल्के अर्थ में भी-यानी काम, लक्ष्य, कार्यक्रम आदि।
पर्यावरण विषय के सीमित अनुभव से मैं कुछ कह सकता हूं कि इस क्षेत्र में काम कर रही बहुत-सी संस्थाएं साध्य, लक्ष्य के मामले में लगातार थपेड़े खाती रही हैं। लोग भूले नहीं होंगे जब पर्यावरण के 'शेयर बाज़ार'