बल्कि सामाजिक आंदोलनों के सूत्रधार की भूमिका में भी एक प्रशंसनीय पहल है।
के.के. बिड़ला फाउंडेशन द्वारा राजस्थान की जल संग्रह व्यवस्था पर अध्ययन के लिए उन्हें एक फैलोशिप दी गई। इस अध्ययन पर आधारित उनकी पुस्तक 'राजस्थान की रजत बूंदें' जल संग्रह की पारंपरिक गतिविधियों का अनूठा दस्तावेज़ है। यह एक अद्भुत संयोग है कि इस पुस्तक की जितनी चर्चा अपने देश में हुई है उससे कहीं ज़्यादा विदेशों में हो रही है। अफ़ग़ान के कृषि मंत्रालय का एक शिष्टमंडल इस किताब में वर्णित तथ्यों और स्थानों के अवलोकन के लिए आया। फ्रेंच में अनूदित यह किताब काफ़ी चर्चित और प्रशंसित रही।
'देश का पर्यावरण' और 'हमारा पर्यावरण' अनुपम जी द्वारा संपादित पुस्तकें हैं, जबकि 'आज भी खरे हैं तालाब' और 'राजस्थान की रजत बूंदें' उन्होंने लिखी हैं। इनके अलावा पत्र-पत्रिकाओं में वे छिट-पुट लिखते रहे- कभी अपनी इच्छा से तो कभी संपादक मित्रों के दबाव से। यह 'साफ़ माथे का समाज' पिछले 20-25 वर्षों में विभिन्न अवसरों पर लिखे गए उनके लेखों का एक चयन है। चयन में यथा संभव कोशिश की गई है कि विषय का दोहराव नहीं हो, प्रारंभिक संपादकीय प्रारूप से लेकर आख़िर-आख़िर तक प्रेस में जाने के वक्त तक 10-12 लेखों को हटाया गया है ताकि कथ्य और विषय के दोहराव को रोका जा सके। फिर भी संभव है, पाठकों को इस पुस्तकों में व्यक्त बातों और विचारों में कहीं दोहराव मिल जाए, वह इसलिए कि लेखक यह मानता है कि कुछ बातें बार-बार कहने के योग्य होती हैं इसलिए बार-बार कही गई हैं। इसी लय में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कुछ बातें बार-बार पढ़ी जानी चाहिए।
इस पुस्तक में कई लेख ऐसे हैं जो बातचीत के आधार पर किहीं और ने लिखे हैं, ज़ाहिर है उनमें अनुपम मिश्र के शब्द और मुहावरे
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