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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१४२

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साध्य, साधन और साधना


ग्राम के काम में लगी एक संस्था ने बाहर की मदद से गरीब गांव में पानी जुटाने के लिए कोई 30,000 रुपए खर्च कर एक तालाब बनवाया। फिर धीरे-धीरे लोगों से उसकी थोडी आत्मीयता बढी। बातचीत चली तो गांव के एक बुजुर्ग ने कहा कि तालाब तो ठीक है पर ये गांव का नहीं, हमारा नहीं, सरकारी-सा दिखता है। पूछा गया कि यह अपना कैसे बनेगा। सुझाव आया कि इस पर पत्थर की एक छतरी स्थापित होनी चाहिए। पर वह तो बहुत महंगी होती है। लागत का अंदाज़ बिठाया तो उसकी कीमत तालाब की लागत से भी ज़्यादा निकली। संस्था ने बताया कि हम तो यह काम नहीं करवा सकते। हमारे पास तो तालाब के लिए अनुदान है, छतरी के लिए नहीं। गांव ने जवाब दिया कि छतरी के लिए संस्था से मांग ही कौन रहा है। ग़रीब माने गए गांव ने देखते-ही-देखते वह पहाड़-सी राशि चंदे से जमा की, अपना श्रम लगाया और तालाब की पाल पर गाजे बाजे, पूजा-अर्चना के साथ छतरी की स्थापना कर डाली।

कुछ को लगेगा कि यह तो फ़िज़ूलख़र्ची है। पर यह मकान और घर का अंतर है। समाज को पानी के केवल ढांचे नहीं चाहिए। समाज को ममत्व भी चाहिए। छतरी लगाने से तालाब सरकारी या संस्था का तकनीकी ढांचा न रहकर एक आत्मिक ढांचे में बदलता है। फिर उसकी रखवाली समाज करता है।

वैसे भी अंग्रेज़ों के आने से पहले देश के 5 लाख गांवों में, कुछ हज़ार कस्बे, शहरों में, राजधानियों में कोई 20 लाख तालाब समाज ने बिना किसी 'वॉटर मिशन', 'वॉटरशेड डेवलमेंट' के अपने ही साधनों से बनाए थे। उनकी रखवाली, टूट-फूट का सुधार भी लोग ही करते थे। जरा कल्पना तो करें हम उस ढांचे के आकार की, प्रकार की, संख्या बल की, बुद्धि बल की, संगठन बल की, जो पूरे देश में पानी का प्रबंध करता

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