माटी, जल और ताप की तपस्या
मरुभूमि में बादल की हल्की-सी रेखा दिखी नहीं कि बच्चों की टोली एक चादर लेकर निकल पड़ती है। आठ छोटे-छोटे हाथ बड़ी चादर के चार कोने पकड़ उसे फैला लेते हैं। टोली घर-घर जाती है और गाती है:
डेडरियो करे डरूं, डरूं,
पालर पानी भरूं भरूं
आधी रात री तलाई नेष्टेई नेष्टे...
हर घर से चादर में मुट्ठी भर गेहूं डाला जाता है। कहीं-कहीं बाजरे का आटा भी। मोहल्ले की फेरी पूरी होते-होते, चादर का वज़न इतना हो जाता है कि आठ हाथ कम पड़ जाते हैं। चादर समेट ली जाती है। फिर यह टोली कहीं जमती है, अनाज उबाल कर उसकी गूगरी बनती है। कण-कण संग्रह बच्चों की टोली को तृप्त कर जाता है।
अब बड़ों की बारी है, बूंद-बूंद पानी जमा कर वर्ष भर तृप्त होने की। लेकिन राजस्थान में जल संग्रह की परंपरा समझने से पहले इस क्षेत्र से थोड़ा-सा परिचित हो जाना चाहिए।
राजस्थान की कुंडली कम-से-कम जल के मामले में 'मंगली' रही है। इसे अपने कौशल से मंगलमय बना लेना कोई सरल काम नहीं था।