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माटी, जल और ताप की तपस्या

मरुभूमि भी सारी मरुमय नहीं है। पर जो है, वह भी कोई कम नहीं। इसमें जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, नागौर, चुरू और श्रीगंगानगर जिले समा जाते हैं। इन्हीं हिस्सों में रेत के बड़े-बड़े टीले हैं, जिन्हें धोरे कहा जाता है। गर्मी के दिनों में चलने वाली तेज़ आंधियों में ये धोरे 'पंख' लगा कर इधर-से-उधर उड चलते हैं। तब कई बार रेल की पटरियां. छोटी-बड़ी सड़कें और राष्ट्रीय मार्ग भी इनके नीचे दब जाते हैं। इसी भाग में वर्षा सबसे कम होती है। भूजल भी खूब गहराई पर है। प्रायः सौ से तीन सौ मीटर और वह भी ज़्यादातर खारा है।

अर्धशुष्क कहलाने वाला भाग विशाल मरुभूमि और अरावली पर्वतमाला के बीच उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम तक लंबा फैला है। यहीं से वर्षा का आंकड़ा थोड़ा ऊपर चढ़ता है। तब भी यह 25 सेंटीमीटर से 50 सेंटीमीटर के बीच झूलता है और देश की औसत वर्षा से आधा ही बैठता है। इस भाग में कहीं-कहीं दोमट मिट्टी है तो बाक़ी में वही चिर परिचित रेत। 'मरु विस्तार' को रोकने की तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय योजनाओं को धता बताकर आंधियां इस रेत को अरावली के दरों से पूर्वी भाग में भी ला पटकती हैं। ये छोटे-छोटे दर्रे ब्यावर, अजमेर और सीकर के पास

इस क्षेत्र में ब्यावर, अजमेर, सीकर, झुंझुनूं ज़िले हैं और एक तरफ़ नागौर, जोधपुर, पाली, जालौर और चुरू का कुछ भाग आता है। भूजल यहां भी सौ से तीन सौ मीटर की गहराई लिए है और प्रायः खारा ही मिलता है।

यहां के कुछ भागों में एक और विचित्र स्थिति है: पानी तो खारा है ही, ज़मीन भी 'खारी' है। ऐसे खारे हिस्सों के निचले इलाकों में खारे पानी की झीलें हैं। सांभर, डेगाना, डीडवाना, पचपदरा, लूणकरणसर,

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