का एक अर्थ यहां जल भी है। सूरज ही तो धरती पर सारे जल चक्र का, वर्षा का स्वामी है।
आषाढ़ के प्रारंभ में सूरज के चारों ओर दिखने वाला एक विशेष प्रभामंडल जलकूडो कहलाता है। यह जलकूडो वर्षा का सूचक माना जाता है। इन्हीं दिनों उदित होते सूर्य में माछलो, यानी मछली के आकार की एक विशेष किरण दिख जाए तो तत्काल वर्षा की संभावना मानी जाती है। समाज को वर्षा की जानकारी देने में चंद्रमा भी पीछे नहीं रहता। आषाढ़ में चंद्रमा की कला हल की तरह खड़ी रहे और श्रावण में वह विश्राम की मुद्रा में लेटी दिखे तो वर्षा ठीक होती है: ऊभो भलो आषाढ़, सूतो भलो सरावण। जलकूडो, माछलो और चंद्रमा के रूपकों से भरा पड़ा है भडली पुराण। इस पुराण की रचना डंक नामक ज्योतिषाचार्य ने की थी। भडली उनकी पत्नी थीं, उन्हीं के नाम पर पुराण जाना जाता है। कहीं-कहीं दोनों को एक साथ याद किया जाता है। ऐसी जगहों में इसे डंक-भडली पुराण कहते हैं।
बादल यहां सबसे कम आते हैं, पर बादलों के नाम यहां सबसे ज़्यादा निकलें तो कोई अचरज नहीं। खड़ी बोली और बोली में ब और व के अंतर से, पुल्लिंग, स्त्रीलिंग के अंतर से बादल का वादल और वादली, बादलो, बादली है, संस्कृत से बरसे जलहर, जीमूत, जलधर, जलवाह, जलधरण, जलद, घटा, क्षर (जल्दी नष्ट हो जाते हैं), सारंग, व्योम, व्योमचर, मेघ, मेघाडंबर, मेघमाला, मुदिर, महीमंडल जैसे नाम भी हैं। पर बोली में तो बादल के नामों की जैसे घटा छा जाती है: भरणनद, पाथोद, धरमंडल, दादर, डंबर, दलवादल, घन, घणमंड, जलजाल, कालीकांठल, कालाहण, कारायण, कंद, हब्र, मैंमट, मेहाजल, मेघाण, महाघण, रामइयो और सेहर। बादल कम पड़ जाएं, इतने नाम हैं यहां
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