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अनुपम मिश्र


अनुपस्थित भी हो सकते हैं लेकिन भाव और विचार के संदर्भ में उनकी उपस्थिति एक-एक पंक्ति में व्याप्त है। पानी के सवाल पर काम शुरू करने वाले और 'वृक्ष मित्र पुरस्कार' से सम्मानित अनुपम मिश्र की प्रचलित छवि एक पर्यावरणविद की बन गई है या बना दी गई है। लेकिन सिर्फ़ पर्यावरणविद के रूप में उन्हें देखना उनकी प्रतिभा और दृष्टि को सीमित करके देखना है।

'गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया' अकाल से थके-हारे गांव की फिर से समृद्ध होने और ज़िदगी जगमगाने की यात्रा-कथा है। एक लक्ष्मण की पहल पर लापोड़िया गांव की काया पलट हो सकती है तो यह उम्मीद क्यों नहीं की जा सकती कि यदि यही बुद्धि और यही दृष्टिकोण देश का नेतृत्व करे तो भारत का भविष्य सुधर जाएगा। अंततः यह देश गांवों का ही है। दरअसल यह लेख भारतीय समाज के संदर्भ में वास्तविक विकास (सुख, समृद्धि और शांति) के लिए एक उपयुक्त अवधारणा गढ़ता है।

बिहार की बाढ़ पर लिखते हुए जब अनुपम मिश्र कहते हैं कि तैरने वाला समाज डूब रहा है तो यह नहीं लगता कि बाढ़ की भयावह स्थिति पर यह सिर्फ एक टिप्पणी है और यह भी नहीं लगता कि बाढ़ की परेशानियों से लेखक परिचय करा रहा है। बल्कि लेखक श्री मिश्र लोक जीवन के उस पारंपरिक हुनर और कौशल का सम्मान करते दिखाई देते हैं जिस भरोसे सदियों से आम जन बाढ़ और सुखाड़ जैसी विपदा के साथ जीते रहे हैं।

बाढ़ पहले भी आती थी, लेकिन इस तरह की विभीषिका अपने साथ नहीं लाती थी। छोटी-मोटी परेशानियों के बदले वह प्राकृतिक बाढ़ खेतों को उपजाऊ बना जाती थी। लेकिन अब जो मानव निर्मित बाढ़ आती है, वह एक तरफ़ जनता को बेघर बनाकर कंगाल करती है तो दूसरी ओर

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