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माटी, जल और ताप की तपस्या


सबसे बड़ा भाई सिद्ध होता है। जेठ ठीक तपे नहीं, रेत के अंधड़ उठे नहीं तो 'जमानो' अच्छा नहीं होगा। जमानो यानी वर्षा काल। वर्षा, खेतीबाड़ी, और घास-चारे के हिसाब से ठीक स्थिति का दौर। इसी दौर में पीथ यानी सूरज अपना अर्थ बदलकर जल बनता है।

आउगाल से प्रारंभ होते हैं वर्षा के संकेत। मोहल्लों में बच्चे निकलेंगे चादर फैलाकर 'डेडरियो' खेलने और बड़े निकलेंगे 'चादरें' साफ़ करने। जहां-जहां से वर्षा का पानी जमा करना है, वहां के आंगन, छत और कुंडी के आगौर की सफाई की जाएगी। जेठ के दिन बीत चले हैं। आषाढ़ लगने वाला है। पर वर्षा में अभी देरी है। आषाढ़ शुक्ल की एकादशी से शुरू होगा वरसाली या चौमासा। यहां वर्षा कम होती हो, कम दिन गिरती हो, पर समाज ने तो उसकी आवभगत के लिए पूरे चार महीने रोक कर रखे हैं।

समाज का जो मन कम आने वाले बादलों का इतने अधिक नामों से स्मरण करता हो, वह उनकी रजत बूंदों को कितने रूपों में देखता होगा, उन्हें कितने नामों से पुकारता होगा? यहां भी नामों की झड़ी लगी मिलेगी।

बूंद का पहला नाम तो हरि ही है। फिर मेघपुहुप है। वृष्टि और उससे बोली में आया बिरखा और व्रखा है। धन का, बादल का सार, घणसार है। एक नाम मेवलियो भी है। बूंदों की तो नाममाला ही है। बूला और सीकर जलकण के अर्थ में हैं। फुहार तथा छींटा शब्द सब जगह प्रचलित हैं। उसी से छांटो, छांटा-छड़को, छछोहो बने हैं। फिर नभ से टपकने के कारण टपका है, टपको और टीपो है। झरमर है, बूंदा-बांदी। यही अर्थ लिए पुणंग और जीखा शब्द हैं। बूंदा-बांदी से आगे बढ़ने वाली वर्षा की झड़ी रीठ और भोट है। यह झड़ी लगातार झड़ने लगे तो झंडमंडण है।

चार मास वर्षा के और उनमें अलग-अलग महीने में होने वाली वर्षा के नाम भी अलग-अलग। हलूर है तो झड़ी ही, पर सावन-भादों की।

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