क्या? भास्कर अपनी दैनिक गतिविधि उसी तरह चलाएगा। मात्र कैलेंडर के पन्ने पलट कर हम अपना घटिया पर्यावरण नहीं बदल सकते।
"हमने कुछ किया है बदलने लायक़" इससे ज़्यादा ज़ोर इस बात पर है कि “कैलेंडर कुछ कर देगा बदलने लायक"। इस आशा में हम कुछ समय ज़रूर बिता देंगे। और फिर समय बीतते क्या देर लगती है। जनवरी, फ़रवरी गई नहीं कि मार्च में देश के लगभग हर भाग में पानी का संकट ठीक 1999 की तरह पलट कर वापस आ जाएगा जो फिर सन् 2000 के मानसून से पहले मिटेगा नहीं।
तो क्या करें हम? अच्छा तो यही होगा कि तारीख़ या दिन गिनने के बदले हम अपने अच्छे कामों को गिनें। अच्छे काम कहीं से भी, किसी भी दिन से शुरू किए जा सकते हैं। यदि मुहूर्त ही देखना है, वह भी सन् 2000 का तो पहली जनवरी से ही सही, अपने बिगड़ते पर्यावरण को सुधारने और उसे संवारने का काम शुरू किया जा सकता है। बीसवीं सदी में नहीं कर पाए तो चलिए इक्कीसवीं सदी में ही करें, पर करना तो पड़ेगा ही।
अलवर (राजस्थान) के भांवता गांव ने सन् 2000 से कोई 13 वर्ष पहले अपने आसपास की पहाड़ियों पर, खेतों में गिरने वाली एक-एक बूंद को रोकने का काम शुरू किया था। अकाल का क्षेत्र था। कुओं में पानी 90 हाथ की गहराई पर। भांवता ने तरुण भारत संघ के साथ मिलकर अपने हिस्से का पानी रोकने के लिए पसीना बहाया। आज पूरा गांव छोटे तालाबों, बांधों से घिरा है। यहीं से एक नदी बहती है जो अब वर्ष भर सूखती नहीं। इन 13 वर्षों में भांवता गांव ने अतिवृष्टि से उत्पन्न एक बड़ी बाढ़ को भी झेला है और एक अकाल को भी-अकाल और बाढ़ के मामलों में सरकार करोड़ों रुपया फूंकती है पर भांवता जैसे कई गांवों ने सरकार को राहत दी है-एक पैसा भी ख़र्च नहीं करना पड़ा वहां।
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