पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१५९

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अनुपम मिश्र


मिल जाएगा। देश के कई क्षेत्रों में तालाब का आगौर प्रारंभ होते ही उसकी सूचना देने के लिए पत्थर के सुंदर स्तंभ लगे मिलते हैं। स्तंभ को देखकर समझ लें कि अब आप तालाब के आगौर में खड़े हैं, यहीं से पानी तालाब में भरेगा। इसलिए इस जगह को साफ़-सुथरा रखना है। जूते आदि पहन कर आगौर में नहीं आना है, दिशा मैदान आदि की बात दूर, यहां थूकना तक मना रहा है। 'जूते पहन कर आना मना है', 'थूकना मना है' जैसे बोर्ड नहीं ठोंके जाते थे पर सभी लोग बस स्तंभ देखकर इन बातों का पूरा-पूरा ध्यान रखते थे।

आगर के पानी की साफ़-सफ़ाई और शुद्धता बनाए रखने का काम भी पहले दिन से ही शुरू हो जाता था। नए बने तालाब में जिस दिन पानी भरता, उस दिन समारोह के साथ उसमें जीव-जंतु लाकर छोड़े जाते थे। इनमें मछलियां, कछुए, केकड़े और अगर तालाब बड़ा और गहरा हो तो मगर भी छोड़े जाते थे। कहीं-कहीं जीवित प्राणियों के साथ सामर्थ्य के अनुसार चांदी या सोने तक के जीव-जंतु विसर्जित किए जाते थे। मध्य प्रदेश के रायपुर शहर में अभी कोई पचास-पचपन बरस पहले तक तालाब में सोने की नथ पहनाकर कछुए छोड़े गए थे।

पहले वर्ष में कुछ विशेष प्रकार की वनस्पति भी डाली जाती थी। अलग-अलग क्षेत्र में इनका प्रकार बदलता था पर काम एक ही था-पानी को साफ़ रखना। मध्य प्रदेश में यह गदिया या चीला थी तो राजस्थान में कुमुदिनी, निर्मली या चाक्षुष। चाक्षुष से ही चाकसू शब्द बना है। कोई एक ऐसा दौर आया होगा कि तालाब के पानी की साफ़-सफ़ाई के लिए चाकसू पौधे का चलन खूब बढ़ गया होगा। आज के जयपुर के पास एक बड़े क़स्बे का नाम चाकसू है। यह नामकरण शायद चाकसू पौधे के प्रति कृतज्ञता जताने के लिए किया गया हो।

पाल पर पीपल, बरगद और गूलर के पेड़ लगाए जाते रहे हैं। तालाब

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