'राहत' के नाम पर भ्रष्ट अधिकारियों और राजनीतिज्ञों को मालामाल बना जाती है। इसलिए कहा जाता है कि जिस वर्ष बाढ़ नहीं आती, राजनीति में सूखा रहता है।
वार्षिक बाढ़ की तमाम तबाहियों और प्रशासनिक उपेक्षाओं को झेलकर भी आदमी यदि अपने अस्तित्व के साथ आज जीवित है तो उसके उस जीवट और जिजीविषा का नमन करना होगा जो संकट के क्षणों में उसके साथ रहे। जीवट और जिजीविषा के इस जीवन का मर्म उस लोक विज्ञान में निहित है जो किसी स्कूल-कॉलेज की उपज नहीं बल्कि सैकड़ों, हज़ारों वर्षों के संघर्षों, अनुभवों और पारंपरिक रहन-सहन से निथर-निथर कर सामने आया है। अनुपम मिश्र ने अपने इन लेखों द्वारा लोक जीवन में व्याप्त इसी ज्ञान और विज्ञान को 'अगोरा' है।
योजनाकारों और देश के रहनुमाओं को इस लोक-विज्ञान और किसानी समझ पर थोड़ा भी भरोसा होता तो आधुनिक विकास का ढांचा आज इतना यांत्रिक, प्रकृति विरोधी और निर्मम नहीं होता। अनुपम मिश्र का लेखन यदि इस बात की प्रेरणा है कि लोक-विज्ञान की आत्मा में ही आधुनिक विज्ञान की देह को आकार दिया जाए तो इस बात की चेतावनी भी है कि प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित किए बिना हासिल की गई भौतिक विकास की तमाम उपलब्धियां प्रलय का ही निमंत्रण हैं।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका 'बहुवचन' में अनुपम मिश्र ने जो एक छोटा सा लेख 'भाषा और पर्यावरण' पर लिखा है (इस पुस्तक का पहला लेख) वह कोई असाधारण भाषाविद ही लिख सकता है।
कहते हैं कि जिसका जैसा व्यक्तित्व होता है वह उसके कामकाज में व्यक्त हो जाता है। अनुपम मिश्र के व्यक्तित्व की सहजता और सरलता उनके कामकाज में तो व्यक्त हुई ही है उनकी भाषा में भी अभिव्यक्त
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