पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१६१

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अनुपम मिश्र


तय किया जाता रहा है। उस समय तालाब में पानी सबसे कम रहना चाहिए। गोवा और पश्चिम घाट के तटवर्ती क्षेत्रों में यह काम दीपावली के तुरंत बाद किया जाता है। उत्तर के बहुत बड़े भाग में नव वर्ष यानी चैत्र से ठीक पहले, तो छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बंगाल, बिहार और दक्षिण में बरसात आने से पहले खेत तैयार करते समय।

आज तालाबों से कट गया समाज, उसे चलाने वाला प्रशासन तालाब की सफ़ाई और साद निकालने का काम एक समस्या की तरह देखता है और वह इस समस्या को हल करने के बदले तरह-तरह के बहाने खोजता है। इसके नए हिसाब से यह काम ख़र्चीला है। कई कलेक्टरों ने समय-समय पर अपने क्षेत्र में तालाबों से मिट्टी नहीं निकाल पाने का एक बड़ा कारण यही बताया है कि इसका खर्च इतना ज़्यादा है कि उससे तो नया तालाब बनाना सस्ता पड़ेगा। पुराने तालाब साफ़ नहीं करवाए गए और नए तो कभी बने ही नहीं। साद तालाबों में नहीं, नए समाज के माथे में भर गई है।

तब समाज का माथा साफ़ था। उसने साद को समस्या की तरह नहीं बल्कि तालाब के प्रसाद की तरह ग्रहण किया था। प्रसाद को ग्रहण करने के पात्र थे किसान, कुम्हार और गृहस्थ। इस प्रसाद को लेने वाले किसान प्रति गाड़ी के हिसाब से मिट्टी काटते, अपनी गाड़ी भरते और इसे खेतों में फैला कर उनका उपजाऊपन बनाए रखते। इस प्रसाद के बदले वे प्रति गाड़ी के हिसाब से कुछ नक़द या फ़सल का कुछ अंश ग्राम कोष में जमा करते थे। फिर इस राशि से तालाबों की मरम्मत का काम होता था। आज भी छत्तीसगढ़ में लद्दी निकालने का काम मुख्यतः किसान परिवार ही करते हैं। दूर-दूर तक साबुन पहुंच जाने के बाद भी कई घरों में लद्दी से सिर धोने और नहाने का चलन जारी है।

बिहार में यह काम उड़ाही कहलाता है। उड़ाही समाज की सेवा है,

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