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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१६५

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अनुपम मिश्र


पीढ़ियों ने शृंखला में बंध कर ही किया होगा। सार-संभाल की वह व्यवस्थित कड़ी फिर कभी टूट गई।

इस कड़ी के टूटने की आवाज़ गैंगजी के कान में कब पड़ी, पता नहीं। पर आज जो बड़े-बूढ़े फलौदी शहर में हैं, वे गैंगजी की एक ही छवि याद रखे हैं: टूटी चप्पल पहने गैंगजी सुबह से शाम तक इन तालाबों का चक्कर लगाते थे। नहाने वाले घाटों पर, पानी लेने वाले घाटों पर कोई गंदगी फैलाता दिखे तो उसे पिता जैसी डांट पिलाते थे।

कभी वे पाल का तो कभी नेष्टा का निरीक्षण करते। कहां किस तालाब में कैसी मरम्मत चाहिए-इसकी मन-ही-मन सूची बनाते। इन तालाबों पर आने वाले बच्चों के साथ खुद खेलते और उन्हें तरह-तरह के खेल खिलाते। शहर को तीन तरफ से घेरे खड़े तालाबों का एक चक्कर लगाने में कोई 3 घंटे लगते हैं। गैंगजी कभी पहले तालाब पर दिखते तो कभी आखरी पर, कभी सुबह यहां मिलते तो दोपहर वहां और शाम न जाने कहां। गैंगजी अपने आप तालाबों के रखवाले बन गए थे।

वर्ष के अंत में एक समय ऐसा आता जब गैंगजी तालाबों के बदले शहर की गली-गली में घूमते दिखते। साथ चलती बच्चों की फ़ौज। हर घर का दरवाज़ा खुलने पर उन्हें बिना मांगे एक रुपया मिल जाता। बरसों से हरेक घर जानता था कि गैंगजी सिर्फ एक रुपया मांगते हैं, न कम न ज़्यादा। रुपए बटोरने का काम पूरा होते ही वे पूरे शहर के बच्चों को बटोरते। बच्चों के साथ ढेर सारी टोकरियां, तगाड़ियां, फावड़े, कुदाल भी जमा हो जाते। फिर एक के बाद एक तालाब साफ़ होने लगता। साद निकाल कर पाल पर जमाई जाती। हरेक तालाब के नेष्टा का कचरा भी इसी तरह साफ़ किया जाता। एक तगाड़ी मिट्टी-कचरे के बदले हर बच्चे को दुअन्नी इनाम में मिलती।

गैंगजी कल्ला कब से यह कर रहे थे-आज किसी को याद नहीं।

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