की क़ीमत चुकवा देता है। कम लोगों के लिए कीमत तो फिर भी समझ में आने वाली बात है। उदाहरण के तौर पर हरसूद को लेना लाज़िमी होगा। वहां नर्मदा नदी पर एक बांध बनाया जा रहा है। हरसद नाम का बड़ा कस्बा डूब रहा है। हरसूद शहर नहीं, छोटा क़स्बा भी नहीं परंतु एक बड़ा क़स्बा तो है। उसे डूबने से बचाने की तैयारी सरकारों ने पिछले 20 वर्षों में नहीं की है।
इस बांध की निर्माण योजना से गुजरात और मध्यप्रदेश के बीच बिजली और खेती (सिंचाई) की योजना है। अगर इस योजना से ज़्यादा लोग लाभ पा रहे हैं तो सरकार को यह बताना चाहिए कि नुकसान कितने लोगों का हो रहा है? आज हम गिनती को छुपा रहे हैं। उसकी भरपाई नहीं सोच रहे हैं। सरकार तो उन्हें बोझ मानती है। उस बोझ की ज़िम्मेदारी मानकर उसे ढोकर ठीक जगह पुर्नस्थापित नहीं करना चाहती है। आज हरसूद उजड़ता दिख रहा है। परंतु पिछले 20-25 साल से वह मन से उजड़ चुका है। 20 साल पहले भी हरसूद के लोग आज की तरह भय और संशय की स्थिति में अपने उजड़ने की प्रतीक्षा कर रहे थे। आज उदारीकरण से लाभ पाने वालों की संख्या अगर अधिक है तो अल्पसंख्यक समुदाय का ज़रूरत से ज़्यादा ख्याल रखना चाहिए।
आज के दौर में लोगों के सामने बड़ी चुनौती है-उनके विवेक हरण की। हम राष्ट्रीयकरण के आने पर राष्ट्रीयकरण के गुण गाने लगते हैं। उदारीकरण के आने पर उसके गुण गाने लगते हैं। चुनौती आने पर पूरा समाज बैठकर हल ढूंढ़े ऐसा वातावरण नहीं बचा है। छोटे-मोटे आंदोलनों को छोड़ दीजिए। उनकी तो कोई जगह इनमें नहीं बन पा रही है। वे इसके हिस्से बन जाते हैं। बड़ा काम कर सकने वाले जो लोग हैं उनका विरोध क्षणिक और ऊपरी सतह का दिखता है।
कोक-पेप्सी एक ऐसा उद्योग है जिसे पानी कच्चे माल के तौर पर
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