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थाली का बैंगन


अपने को जोड़ती है। वह गंगा को कहीं बहाती है, यमुना को कहीं बहाती है तब जाकर वह इलाहाबाद में अपने को मिलाती है। यह जोड़ समाज के लिए संगम या तीर्थ कहलाता है। वह पर्यावरण की एक बड़ी घटना होती है। दोनों नदियों में वनस्पति अलग, जलचर का अलग-अलग स्वभाव होता है। पहले नदियां निचले स्तर में, धाराओं में साम्य लाती हैं। ऐसी जगहों को वहां के समाज ने बहुत उदार भाव से देखा होगा। प्रकृति की इन घटनाओं को आदर भाव से संगम घोषित किया गया होगा। वे प्रकृति की इन घटनाओं का आदर करते हैं। अभी जो हम नदी जोड़ो की बात कर रहे हैं उसमें हम नदियों को संख्या दे देंगे। यह तीर्थ नहीं बनने वाला है। यह तकनीकी कार्य होगा। इसका नतीजा भी तकनीकी ही होगा। हमें यह सब कुछ नदियों पर ही छोड़ देना चाहिए।

नदियां, समुद्र में प्रवेश करने से पूर्व अपने बहुत सारे टुकड़े करती हैं। अन्यथा उन रास्तों से प्रवेश कर समुद्र प्रलय मचाता। नदियां बहुत संतुलन और धैर्य के साथ समुद्र में विलीन होती हैं। गंगा बांग्लादेश और पश्चिम की नदियां अरब सागर में कई टुकड़ों में बंटकर मिलती हैं। प्रकृति पर श्रद्धा रखना वैज्ञानिक सोच है। यह सोच विकसित करनी होगी कि जितना प्रकृति ने दिया है उसके हिसाब से अपना जीवन चलाएं। प्रकृति ने अलग-अलग क्षेत्रों में कई नदियां बनाई हैं। अन्यथा वह एक नदी बनाती। कश्मीर से चलाकर कन्याकुमारी तक उसे पहुंचाती। ऐसा संभव नहीं है। भूगोल ऐसी अनुमति नहीं देता है। यह काम पर्यावरण से ज़्यादा भूगोल नष्ट करेगा। पर्यावरण को संतुलित किया जा सकता है। परंतु भूगोल को नहीं। पृथ्वी की जो ढाल है, चढ़ाव है जिनके कारण ज़्यादातर नदियां पूरब की तरफ़ बहती हैं उन्हें पश्चिम की तरफ़ अगर मोड़ेंगे तो आनेवाली पीढ़ी हमें माफ़ नहीं करेगी।

पांच-दस साल में हमने जो बाहर से बड़े ट्रालर (मशीनीकृत नौका)

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