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भगदड़ में पड़ी सभ्यता

हर समाज में उत्सव प्रियता की एक बड़ी जगह रहती है। इसमें मेले-ठेलों का आयोजन स्वागत योग्य ही होता है। लेकिन जोहान्सबर्ग में 'स्थायी विकास पर विश्व सम्मेलन' समझ से परे है।

दुनिया के अधिकांश देशों, भागों के 'पिछड़ेपन' पर तरस खाकर कोई साठ बरस पहले 'विकास' नाम की 'जादुई दवा' की पुड़िया हरेक को थमा दी गई थी। फिर 3 दशक बाद इन्हीं चिकित्सकों ने पाया कि विकास से विनाश भी हो रहा है। तो तुरंत विनाश रहित विकास का नारा भी सामने आ गया था। फिर उससे भी दुनिया की समस्याएं जब ठीक होती नहीं दिखीं तो 'बुंटलैंड आयोग' के समझदार सदस्यों ने पूरी दुनिया का चक्कर लगाकर 'स्थायी विकास' का विचार सामने रखा। तब से अब तक संयुक्त राष्ट्र संघ के ढांचे में इसकी कोई सत्तर से अधिक परिभाषाएं विकसित हो चुकी हैं।

हर देश में विकास के नाम पर अपने ही संसाधनों की छीना-झपटी चलती रही है। बाद में यह देशों की सीमाएं लांघकर बड़े क्षेत्र तक भी फैली है। और अब तो 'भूमंडलीकरण' जैसे विचित्र शब्दों की मदद से पूरी दुनिया में एक नए क़िस्म की लूटपाट का कारण बन गई है। संसाधनों