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भगदड़ में पड़ी सभ्यता


की ऐसी लूटपाट पहले कभी देखी नहीं गई थी। इसमें माओ का चीन हो या गांधी का भारत-सभी देश कोका कोला के चुल्लू भर पानी में डूब मरने को ही विकास का उत्सव मान बैठे हैं।

भूमंडलीकरण की होड़ में, ऐसी भगदड़ में फंसी सरकारों से, उनके कर्ता-धर्ताओं से किसी तरह के स्वस्थ, स्थायी विकास की उम्मीद कर लेना भोलापन या साफ़ शब्दों में कहें तो पोंगापन ही होगा। 'स्थायी विकास' की एक सर्वमान्य परिभाषा इसे ऐसा विकास बताती है जो देशों और दुनिया के स्तर पर कुछ ऐसा करे कि वर्तमान पीढ़ी की बुनियादी ज़रूरतें आने वाली पीढ़ी की ज़रूरतों को चोट पहुंचाए बिना सम्मानजनक ढंग से पूरी हो सकें। लेकिन आज हम देख रहे हैं कि विकास का यह ढांचा तो इसी पीढ़ी की ज़रूरतें पूरी नहीं कर पा रहा। वह इसी पीढ़ी के एक ज़रा से भाग की सेवा में शेष बड़े भाग को वंचित करता जा रहा है।

पूरी दुनिया को रोंदने वाले इस विकास से पहले लगभग सभी समाजों में, यूरोप आदि में भी अपनी समस्याओं को अपने ढंग से हल करने की स्फूर्ति रही है। पर लंबे समय की गुलामी और उसके बाद मिली विचित्र आज़ादी ने उन समाजों की उस स्फूर्ति का हरण कर लिया है। आज सभी मंचों से 'परंपरागत ज्ञान' का खूब बखान होने लगा है पर यह कुछ इस ढंग से होता है मानो परंपरा हमें पीछे लौटा ले जाएगी। परंपरा का अर्थ है जो विचार और व्यवहार हमारे कल आज और कल को जोड़ सके। नहीं तो उसका गुणगान भी स्थायी विकास के ढोल की तरह होता जाएगा।

इस पखवाड़े जब दुनिया भर से जोहान्सबर्ग गए लोग वहां से अपने-अपने देश लौटेंगे तो क्या वे भगदड़ में पड़ी इस सभ्यता या असम्यता के लिए एक स्थायी, कल आज और आने वाले कल के लिए टिक सकने वाले एक टिकाऊ विचार को वापस ला सकेंगे?

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