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असभ्यता की दुर्गंध में एक सुगंध


पहले कुछ सरल बातें। फिर कुछ कठिन बातें भी। एक तो गांधीजी ने पर्यावरण के बारे में कुछ नहीं लिखा, कुछ नहीं कहा। तब आज जैसा यह विषय, इससे जुड़ी समस्याएं वैसी नहीं थीं, जैसे आज सामने आ गई हैं। पर उन्होंने देश की आजादी से जुड़ी लंबी लड़ाई लड़ते हुए जब भी समय मिला, ऐसा बहुत कुछ सोचा, कहा और लिखा भी जो सूत्र की तरह पकड़ा जा सकता है और उसे पूरे जीवन को संवारने, संभालने और उसे न बिगड़ने के काम में लाया जा सकता है। सभ्यता या कहें कि असभ्यता का संकट सामने आ ही गया था।

गांधीजी के दौर में ही वह विचारधारा अलग-अलग रूपों में सामने आ चुकी थी जो दुनिया के अनेक भागों को गुलाम बनाकर, उनको लूटकर इने-गिने हिस्सों में रहने वाले मुट्ठी-भर लोगों को सुखी और संपन्न बनाए रखना चाहती थी। साम्राज्यवाद इसी का कठिन नाम था। उस दौर में गांधीजी से किसी ने पूछा था कि आज़ादी मिलने के बाद आप भारत को इंग्लैंड जैसा बनाना चाहेंगे तो उन्होंने तुरंत उत्तर दिया था कि छोटे से इंग्लैंड को इंग्लैंड जैसा बनाए रखने में आधी दुनिया को गुलाम बनाना पड़ा था, यदि भारत भी उसी रास्ते पर चला तो न जाने कितनी सारी दुनिया चाहिए