पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/१८७

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अनुपम मिश्र


भीतर चलिए जूते उतार कर'। बगीची के आगोर में वो जूते उतार के ले गए। बीच में चबूतरा था। उस पर एक ढक्कन था। उसको खोलकर उन्होंने दिखाया। भीतर पानी था। मैंने पूछा-'कुआं है?' उन्होंने कहा-'कुआं नहीं, यह टांका है।' टांके और कुएं का अंतर मैंने पहली बार समझा। इसमें वर्षा का पानी इस आगोर से फ़र्श में रोक कर भरा गया है। मुझे बड़ा अचरज हुआ। उन्होंने कहा-'यहां पानी इतना कम गिरता है कि कुएं तो 300-400 फुट गहरे हैं और उनमें अधिकांश में खारा पानी है। यह टांका वर्षा का मीठा पानी रोकने का तरीक़ा है।' फिर ऐसे कितने हैं; उन्होंने कहा-'घर-घर में हैं।' फिर तो एक नियम-सा बन गया कि अपने घर का टांका दिखाओ। एक उत्सुकता में समझते चले गए। वो जिज्ञासा शोध वाली नहीं थी। वह श्रद्धा बनती गई।

इससे पहले मध्यप्रदेश में तालाब वगैरह के बारे में थोड़ा बहुत पता था। उस समय 10-12 साल पर्यावरण का जो छोटा-मोटा काम किया था उससे जो समझ बनी, उसमें पानी का विषय उतना नहीं पकड़ पाया था। जंगल का काम कुछ पकड़ा था-चिपको आंदोलन के कारण। इतना ज़रूर समझ में आता था कि इन सब विषयों में अगर सबसे बड़े विशेषज्ञ हैं तो वे समाज के लोग हैं। दूसरे विशषज्ञों की ज़रुरत नहीं पड़ती समाज को। वो अपना काम खुद करना जानता है अपने इलाके में। पानी में भी ऐसा ही है। यह बाद में समझ आया। राजस्थान का जो यह पहला दर्शन हुआ उससे फिर हमने और कुंड और टांके देखे और फिर यह सब समझना शुरू किया। लेकिन मैं आज भी कहूंगा कि सन् 80 के आसपास काम शुरू हुआ। आज 20 साल हो गए। आज भी राजस्थान के पानी का सब कुछ पता हो गया, कोई ऐसा भाव नहीं है।

राजस्थान के बाद इस तरह की उत्सुकता फिर और प्रदेशों के लिए भी जगने लगी होगी।

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