हम लोगों ने यह भी देखा कि कोंकण में पानी इतना अधिक गिरता है लेकिन फिर भी पानी की खूब समस्या है। तो यह समझ में आया कि पानी गिरा नहीं कि फिर जाकर समुद्र में मिल जाता है। पश्चिमी घाट में, कोंकण, गोवा आदि क्षेत्रों में समाज उसके पूरे ढाल में जो चार-पांच तालाब बनाते थे, वो इस दौर में नष्ट हो गए। इसका मतलब ज्ञान तो चेरापूंजी में भी है और यहां भी है पहले भी रहा है। एक बड़ा फ़र्क यह हुआ कि लोग कहते है कि अब क्यों अकाल पड़ रहा है पहले क्यों नहीं पड़ा। तीन इंच जहां पानी गिरता है या 9-10 इंच गिरता है और जहां 100 से ऊपर गिरता है उन दोनों जगहों के समाजों की जीवन-शैली अपने मिट्टी पानी के अनुकूल थी। लेकिन अब पिछले 100 साल में सबको विकास की एक ऐसी चीज़ मिल गई है, जिसके कारण सबको एक जैसा रहना है, एक जैसा खाना है, एक जैसे कपड़े पहनने हैं, एक जैसी फ़सल लगानी है। गेहूं जो हमारे यहां नदी-घाटी का पौधा माना गया-वहां की फ़सल मानी गई-वह हम जैसलमेर में भी देखना चाहेंगे, बीकानेर में भी देखना चाहेंगे; तभी हम उस इलाके को प्रगतिशील या विकसित कहेंगे। 3 इंच और 9 इंच पानी में नलकूप (चापाकल) के बिना यह सब संभव नहीं होगा। पूरे अहमदाबाद और उसके बाद वाले हिस्से में सौराष्ट्र वगैरह में मूंगफली की खेती आई। लोगों ने एक सी जीवन-शैली अपनाई पर प्रकृति ने एक-सी स्थिति नहीं बनाई। (जलवायु भी एक सी नहीं, वनस्पति भी नहीं हैं) एक-सा पानी नहीं मिलता तो एक-सी फसल कैसे लगाते चले आ रहे हैं। तो ये प्रकृति के शायद स्मरण पत्र हैं बीच-बीच में ऐसे अकाल के ज़रिए; कि भई तुम संभल के चलो नहीं तो इससे भी बड़ा ख़तरा आ सकता है।
जब हम लोगों ने यह काम समझना शुरू किया तब कभी भी इसको किताब के रूप में लिखने की हिम्मत हम नहीं जुटा पाए। हमेशा लगता
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