अपने ही लोगों को हमने प्रशिक्षण का विषय मान लिया है। हर चीज़ के
लिए हमारे पास में प्रशिक्षण जैसा शब्द है। उसको इस बात के लिए
प्रशिक्षित किया जाए। लोगों को शिक्षित किया जाए, साक्षर बना दिया
जाए। उसको संगठित किया जाए। जितनी अच्छी सामाजिक संस्थाएं हैं
उसमें धर्म संस्थाएं भी हैं, उसमें ईसाई संस्थाएं भी शामिल हैं, संघ की
संस्थाएं शामिल हैं-सबके मन में यही उतावलापन है कि हमारा समाज
बहुत गिर-पड़ गया है। उसका कोई संगठन नहीं है। उसको संगठित करना
है। हम सब भूल गए हैं कि उसका एक विशाल संगठन था। हमने उसको
भुला दिया। थोड़ी धूल ज़रूर पड़ गई है उस पर। आज तो उस धूल को
साफ़ करने के लिए एक विनम्र सेवक चाहिए। विशेषज्ञ नहीं चाहिए।
झाड़-पोंछे वाले लोग चाहिए जो धूल साफ़ करके चले जाएं; उसको कोई
उपदेश न दें। फिर उनसे अगर आपकी मित्रता ऐसी बन जाती है तो थोड़ी
डांट-डपट भी कर सकते हैं। समाज की गलती भी बता सकते हैं तब ।
लेकिन बिना संबंध बनाए उसमें प्रवेश नहीं किया जाए। हो सकता है कि
पिछले 50 साल में हमने कोई नई चीज़ ली हो। तो फिर आदान-प्रदान
हो कि भाई आपके पास यह चीज़ नहीं है। जैसे आपको अक्षर लिखना
नहीं आता, यह इस समय की ज़रूरत है। सीखना चाहो तो सीख लो।
हम साक्षरता केंद्र खोल रहे हैं। लेकिन उस भाव से मत खोलो कि तुम
मूर्ख हो, गधे हो। तुमको तो कुछ आता ही नहीं है।
हिंदी में लिखने का सबसे बड़ा कारण है कि अंग्रेज़ी नहीं आती। जो साधारण पढ़ाई मैंने की उसमें अंग्रेज़ी पर कभी ज़ोर नहीं दिया। भाषा के नाते प्रेम किया। अच्छी कौन-सी अंग्रेज़ी है, कौन-सी कमज़ोर है ये भी समझ में आता है लेकिन मैंने कभी अपनी अंग्रेज़ी ठीक करने पर जोर नहीं दिया। इसलिए बहुत से लोगों को जानकर अचरज होगा कि मैं शायद
ही कभी अंग्रेज़ी में साल में एक-आध चिट्ठी लिखता हूं। टाट-पट्टी वाले